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शाम ढलने लगी रात हँसने लगी / रंजना वर्मा

शाम ढलने लगी रात हँसने लगी
आज फिर रातरानी महकने लगी

घिर गये मेघ काले गगन में घने
अब बिना लाज बिजली चमकने लगी

फूल पर तितलियाँ सो गयीं चैन से
खग वधू घोंसले में दुबकने लगी

स्वप्न बन कर सितारे रहे टूटते
धैर्य गिरि श्रृंखला भी दरकने लगी

डाल घूँघट चली प्रीति के गाँव पर
अब हवाओं से चूनर सरकने लगी

हैं भटकते नयन हो रहे बावरे
आग है फिर विरह की दहकने लगी

साँवरे धुन बजा रीति की प्रीति की
सुन जिसे राधिका थी बहकने लगी