शृंगार रस का स्थायी भाव / रस प्रबोध / रसलीन
शृंगार रस का स्थायी भाव
रति का लक्षण
प्रियजन लखि सुन जो कछुक प्रीति भाव चित होइ।
सो रति भाव सिंगार को थाई जान्यौ सोइ॥66॥
रतिभाव का उदाहरण
तुव हित नव तरु नेह को उपज्यौ हरि हिय आइ।
सुरति सलिल सींचति रहति सफल होनि के चाइ॥67॥
वै चिकनी बतियाँ रहीं तिय हिय जोति जगाय।
पूरन करिये नेह तो अति दीपति सरसाय॥68॥
रति के विभावों का वर्णन
प्रथमहि कारन होत है कारज ते नित आइ।
याते आदि विभाव को उचित बरनिबो ल्याइ॥69॥
रति कारन जो कवित मैं सो विभाव द्वै जान।
इक आलंबन दूसरो उद्दीपन पहिचान॥70॥
जाते रति अवलम्बई सो आलम्बन होइ।
रति की दीपति जाहि ते उद्दीपन है सोइ॥71॥
सो आलंबन नायका अरु नायक जिय जानु।
पिय प्रति तियहिं तियाहि प्रति पिय चित मैं यह आनु॥72॥
रसिक प्रिया का दोहा
बरनत नारी नरनते लाज चौगुनी चित्त।
भूख दुगुन साहस छगुन काम अष्ठगुन भित्त॥73॥
नायिका के तीनों गुणों का वर्णन
गौरी तुलित अनूप मनहरनी कमला रूप।
बानी लौं अति चतुर तिहि तिय बरनत कविभूप॥75॥
तीनों गुणों का उदाहरण
मुख ससि निरखि चकोर अरु तन पानिप लखि मीन।
पद पंकज देखत भँवर होत नयन रसलीन॥76॥
गिरिजा सिव तन मैं रही कमला हरि हिय पाइ।
तू तन हरि पिय हिय बसी हिय हरि प्रानन जाइ॥77॥
सुरन निकारे सिन्धु ते रतन चतुर्दस जोइ।
बेधा मेधहु सिन्धु तें एकै तुही बिलोइ॥78॥