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शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़ / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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शौक़ देता है मुझे पैग़ाम-ए-इश्क़
हाथ में लब-रेज़ ले कर जाम-ए-इश्क़

आप हूँ ज़ौक़-ए-असीरी से ख़राब
कोई ले जाए मुझे ता दाम-ए-इश्क़

इश्तियाक़-ए-सजदा से बे-ताब हूँ
ऐ हरीब-ए-काबा-ए-इस्लाम-ए-इश्क़

क़ैस ओ वामिक़ से कहाँ अब अहल-ए-दिल
था उन्हीं लोगों से रौशन नाम-ए-इश्क़

नाश पर फ़रहाद के शीरीं गई
वो सितम परवरदा-ए-आलाम-ए-इश्क़

और यूँ करने लगी रो कर ख़िताब
ऐ वफ़ा की जान ऐ नाकाम-ए-इश्क़

तुझ से रौनक़-आश्ना है सुब्ह-ए-शौक़
तुझ से ज़ीनत आफ़रीं है शाम-ए-इश्क़

जान दे कर तू तो छूटा रंज से
रह गई मैं ही बला आशाम-ए-इश्क़

तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
मौत पर होगा मेरे अंजाम-ए-इश्क़

‘वहशत’ वहशी के था सब से अलग
हो गया क्या बे-तकल्लुफ़ राम-ए-इश्क़