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श्याम लता को देखा उगते बढ़ते खिलते-- / विजेन्द्र
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श्याम लता को देखा उगते बढ़ते खिलते-
अंगों को समुचित आभा से प्रतिबिम्बित करते
उस निर्जन में जहाँ उगा करते झाड़ हठीले
बबूल, आक, हींस, आफ़त मारे ऊँटकटीले
एकाकीपन भी क्या अद्भुत्त है उसका जब भी
तपता मरु अँधड़ आता- नहीं आँसता तब भी
उसको दुख का तिनका जैसे कालकूट पीकर
जीवित हो, संकल्पवान हो, ऐसे पल-पल जीकर
ही इतिहास रचा है तुम ने, औरों को देकर
शीतल छाया आँखॊं को रूप सजीवन अंजन
जिस से मैं देख सकूँ धरती में रुपायित कंचन
जो अदृश्य होता रहता मुझसे, आया खे कर
है जो कश्ती ऐसा मनुष्य अजेय होता है
साथ तुम्हारा कैसा निश्छल कल्मष धोता है।