श्रापित मोहब्बत हो कोई और उसे मुक्तिद्वार मिल जाये / वंदना गुप्ता
आज भी कुँवारी है मेरी मोहब्बत
जानते हो तुम
रोज आती हूँ नंगे पाँव परिक्रमा करने
उसी बोधिवृक्ष की
जहाँ तुमने ज्ञान पाया
जहाँ से तुमने आवाज़ दी
उस मृतात्मा को
जिसका होना ना होना
खुद के अस्तित्व के लिए भी दुरूह है
काठ की दुल्हनें कब डोलियों में बैठी हैं
फिर भी तुमने देवदार बन कर
छाँव के औसारे पर
मेरे पाँव की जमीन की मिटटी पर
अपने दिल की तस्वीर बनाई थी
और वो मिटटी धडकने लगी
साँसों पर ठहरी इबारत
आकार लेना चाहकर भी ना ले सकी
जानते हो ना
मैं होकर भी नहीं हूँ
देवदासी तो नहीं हूँ
पर उससे कम भी नहीं
कैसे श्रृंगार पर अधिकार करूँ
मोहब्बत का श्रृंगार मेरी
माँग का सिन्दूर नहीं
पत्थर की राजकुमारियां
शापित होती हैं डूब कर मरने के लिए
मगर तुम्हारी साधना की आराधना बनना
तुम्हारे हाथों में सुमिरन की माला बन
ऊंगलियों में फिरना
जीवित काष्टों का नसीब नहीं
देखो मत छूना मुझे
ये ग्रीवा पर ऊंगलियों के स्पर्श
मुझमे चेतना का संचार नहीं करेंगे
अरे रे रे रुको वहीँ
पीछे बहता दरिया मेरी कब्रगाह है
नहीं है इजाज़त मुझे बाँध बाँधने की
सिर्फ प्रवाहित हो सकती हूँ
अस्थियों की तरह
गर तुमने मेरी माँग में
अपने प्रेम का सिन्दूर भरा
वैधव्य का दुशाला कैसे ओढूंगी
श्रापित हूँ मैं
दूर रहो मुझसे
मैं कहती रही तुम सुनते रहे
और तुम्हारे कदम बढ़ते रहे
बलिष्ठ भुजाओं में भर
स्नेह्जनित चुम्बन
शिव की तीसरी आँख पर
अंकित कर
मुझे श्राप से मुक्त किया
मेरा भरम तोड़ दिया श्रापित होने का
सुदूर पूरब में
सूर्योदय की लालिमा का रंग
मेरे मुखकमल पर देख
तुमने इतना ही तो कहा था
पिघलती चट्टान का रंग-ओ-सुरूर हो तुम ओ मेरी दिवास्वप्ना!!
बस फिर यूँ लगा
श्रापित मोहब्बत हो कोई और उसे मुक्तिद्वार मिल जाये