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श्रीमती! छमा करौ, तजि मान / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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श्रीमती! छमा करौ, तजि मान।
हौं तो सदा तिहारौ सेवक, तुम स्वामिनी सुजान॥
बेर भई या कारन मोकूँ, करत रह्यौ तव ध्यान।
देखत रह्यौ निरंतर अति समीप तुम कूँ रसखान॥
करत रहीं नव-नव नाना-बिधि लीला तुम मो संग।
अति प्रत्यच्छ मिलन-माधुरि अति, रसमय कथा-प्रसंग॥
मधुर अमिय-रस-बरसी बचन, मनोहर मधुरालाप।
सुनत, निहारत रूप-माधुरी, देखत क्रिया-कलाप॥
आनंदामृत परम दिय पाकर हौं भूल्यौ भान।
रह्यौ तिहारे सुख-सेवा-रत, तुमहि निकट निज जान॥
टूट्यौ ध्यान, छिपी मन मूरति, उदयौ बाहर-ग्यान।
तब हौं दौरि चल्यौ आतुर ह्वै, मन महँ अति भय मान॥
छमहु छमा-मन्दिर! मेरौ यह मोह-जनित अपराध।
बाहर-भीतर सदा रहौं हौं तो तव ढिंग निर्बाध॥