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संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

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संग-ए-तिफ़्लाँ फ़िदा-ए-सर न हुआ
आज उस कूचे में गुज़र न हुआ

हम भी थे जौहर-ए-गिराँ-माया
पर कोई साहिब-ए-नज़र न हुआ

अम्न-आलम में क्यूँ नहीं या रब
इस के क़ाबिल मगर बशर न हुआ

बे-कसी पर्दा-दार-ए-दर्द हुई
ख़ैर गुज़री के अपना घर न हुआ

क़द्र-दानी की कैफ़ियत मालूम
ऐब क्या है अगर हुनर न हुआ

सर झुकाए जो आते हो ‘वहशत’
मगर इस बज़्म में गुज़र न हुआ