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सखि, रजनीगंधा के फूल / रामगोपाल 'रुद्र'

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सखि! रजनीगंधा के फूल
गुंजन की गीली साँसों से भर जाते दृग-कूल।

बरबस हिय में हूक उठाकर,
सोए मेरे स्वप्न जगाकर,
टीस रहे प्राणों के व्रण में, जैसे टूटे शूल!

धूल हुए सब फूल हमारे;
फूल चुए, आँखों के तारे;
फूटी इन आँखों में अब वे भरते क्योंकर धूल!

माना, वे सोने के सपने
होते-होते हुए न अपने,
अनहोनी हो गई; हो गया; फिर क्यों इतना तूल!