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सखी! वह कैसौ मीठौ सपनौ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सखी! वह कैसौ मीठौ सपनौ।
देखत ही प्रेमांबुधि उमग्यौ, बिसर्‌यौ, तन-मन अपनौ॥
ठाढी हुती भोर की बेला हौं निकुंज के द्वार।
अति अनमनी, बिरह-दुख-पीडित, लखि जीवन निस्सार॥
आय अचानक पाछे सौं मेरे ढिग वे चुपचाप।
कोमल करतल सौं ढाँके दृग दो‌ऊ अपने-‌आप॥
कर परसत बिजुरी-सी दौरी, बाढ्यौ अति अनुराग।
हौं पहचानि ग‌ई प्रियतम-कर, प्रान उठे पुनि जाग॥
आय गये सनमुख जीवन-धन प्रियतम हरि अनवद्य।
हिय-सरोज बिकस्यौ दरसन करि प्रिय दिनकर के सद्य॥
मिले नयन-सौं-नयन, हृदय-सौं-हृदय, बिना व्यवधान।
सांत भयौ बिरहानल करि कै प्रेम-सुधा-रस-पान॥
इतने महँ को‌उ आय जगा‌ई मो कहँ कुलिस-कठोर।
जरत हियौ तबही सौं सजनी ! बिछुरे प्रान किशोर॥