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सतपुड़ा और उसकी बेटी नर्मदा / प्रेमशंकर रघुवंशी

तुम्हारी ठोस चट्टानें
धरती के
आदिम अस्तित्व का प्रमाण दे रही हैं
पेड़-पौधे-लताएँ
घास-फूस
कोमल रोएँ हैं तुम्हारे
और साँवला शरीर
कहानी है फौलादी
इसी कहानी को
आकार देने के लिए
जुटे हैं मजदूर
अपना खून-पसीना एक करते-खदानों में
नर्मदा!
तू इस कदर चिंघाड़ क्यों रही है?
जबकि पूरा पहाड़
तुझमें ही देख रहा है अपना चेहरा
इतने बड़े आसमान के नीचे
वे लोग
जो सतपुड़ा के संग साथ जन्मे थे
आज भी
अपनी संतानों के साथ नंगे हैं
पहाड़ में बोते हुए दु:ख
जिसे अपना
आनंद मान लिया है इन्होंने
ये कब तक
मेमनों की तरह पीते रहेंगे
चीतों की गुर्राहटें?
कब तक बने रहेंगे बुत?
कब रगड़ेंगे पत्थरों को आपस में
कि जिनसे-
अंधेरी गुफाओं के भीतर
जन्म ले उजाला
कब होगी
तेरी धार
चाकू छुरी गुप्ती या तलवार की तरह।