भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सफ़र / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ानाबदोशों का शुरू हो गया सफ़र
क़ब्रों की दुनिया में
रात की ज़मीन पर
टहल रहे हैं पेड़,
सुनहली मदिरा की तरह
अंगूरों के झूम रहे हैं गुच्छे,

घर से घर की ओर यात्रा करते ये- तारे हैं
नए सिरे से रास्ता बनाती ये- नदियाँ हैं ।

मुझे इच्छा हो रही है
तुम्हारे पास आने
और तुम्हारी छाती पर सिर रखने की ।

रचनाकाल : 14 जनवरी 1917

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह