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सफेद चांद / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
सफेद झक्क चांद
दु:ख ओढ़े
मुस्कुरा ही दिया और मैंने
चुपके से देख ली
जज्ब कर ली, अपने जज्बातों में
ऐसा करना
कितना अच्छा लगा था मुझे
पर ये तय है
अच्छी बातें बार-बार
नहीं होतीं और दुख
बार-बार गिरता है आंगन में
कितना बुहारुंगी मैं
कहीं तुम्हारी वह मुस्कान
अंधेरे आंगन की
कच्ची मिट्टी में धुल न जाए
अन्तत: जिसका डर था मुझे
वही हुआ
ढूंढती फिर रही हूं तुम्हारी
मुस्कान उस छोटे से आंगन में
घुल गई है वो
कच्ची मिट्टी में ऐसे
जैसी कभी थी ही नहीं.