भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सबल / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जितना मरती हूँ
मेरी कविता उतनी ही प्राणवान हो उठती है
मैं जितना बुझती हूँ
मेरी कविता उतनी ही जगमगाने लगती है
मैं जितना उदास होती हूँ
मेरी कविता उतनी ही खिलखिलाने लगती है

कब तक घुटकर रहूँगी प्रताडऩाओं उदासियों अंधेरों और दुखों से