समझता खूब है वो भी बयान की कीमत
चुका रहा है जो अब भी ज़्बान की कीमत
इसी मुकाम पे समझा तमाम रिश्तों को
लगा रहा हूं जब अपने मकान की कीमत
बड़ा ग़ुरूर, बड़ी हैसियत, बड़ी बातें
अकाल हो तो समझते हैं धान की कीमत
किसी ने माना किसी ने कभी नहीं माना
गिराई फिर भी सभी ने पुरान की कीमत
नहीं चला सके इक तीर भी निशाने पर
वही लगाते हैं अक्सर कमान की कीमत
लहू बहाओ भले रोज़-रोज़ कितना ही
तुम्हें चुकाना ही होगा क़ुरान की कीमत
तुम्हारे वास्ते इक वोट हैं महज़ अब भी
लगा रहे हैं यहां पर वो जान की कीमत