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समझौता / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
यह एक बूढ़ा आदमी है
इसने देश की दिशा को बांधा है
गेरुए वस्त्रों में लिपटा
दूसरी तरह का बूढ़ा है
यह बंधे तालाब से
मछलियां पकड़ता है
उन्हें खाता है
यह जो बूढ़ा है
इसकी नसों में बहती परम्परा है
यह जो दूसरा बूढ़ा है
वह परम्परा क घोड़े पर
चढ़ा सवार है
दोनों
किसी एक बिन्दु पर मिलते हैं।
एक बेचता है परम्परा
दूसरा खरीदता है
यह जो बूढ़ा है
शायद मेरा पिता है
दूसरा जो बूढ़ा है
शायद मेरा पूर्वज है
दोनों के बीच
कहीं एक गुपचुप समझौता है
समझौते की एक चक्की में
पिस रहा है देश
पिस रहा है आदमी
पिस रहा हूं मैं!