भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समीकरण भी / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
रंगों का समीकरण भी
पँख बाँध कर कबन्ध में
आँखें दिखला रहे हमें
चलती है जहाँ नहीं आग की उधारी
यह ऐसा गाँव है
कटे-कटे खेत हैं जहाँ
गर्म हवा का पड़ाव है
टहनी भर छाँह ओढ़ कर
झूम रहे जो सुगन्ध में
आँखें दिखला रहे हमें
गोद लिए शब्दों की बाँह, बाँझ लेखनी
थाम कर अकड़ रही
एक हरे-भरे बाग़ की
तितलियाँ पकड़ रही
टंकित हो फूल रहे जो
सम्बन्धों के निबन्ध में
आँखें दिखला रहे हमें