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सरे शहर में एक भी तो घर बचा नहीं / कुमार अनिल

सारे शहर में एक भी तो घर बचा नहीं
कल रात कोई हादसा जिसमे हुआ नहीं

चौरास्ते पे क़त्ल को मुद्दत गुजर गई
क्या बात है कि शोर भी अब तक मचा नहीं

कैसा ज़हर घुला था न जाने हवाओं में
कल रात जो भी सोया, अभी तक जगा नहीं

दहशत तमाम शहर में छाई है इस कदर
खिड़की भी कोई खोल के अब देखता नहीं

बेकार झूठी आस में फिरते हो दर बदर
कोई किसी का रास्ता अब देखता नहीं

सदियों से इंतजार था जिस शख्स का हमें
आया तो था करीब वह लेकिन रुका नहीं

माना 'अनिल' खरीद तू पाया न कुछ यहाँ
लेकिन यही क्या कम है अभी तक बिका नहीं