भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँस वही सुर में / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुर अपने हों या दूजों के
   वही बजेंगे
 
अपने आँगन में वसंत हो
नहीं ज़रूरी
कहीं भी खिलें
ख़ुशबू तो होगी गुलाब की
फिर भी पूरी
 
देवों के मस्तक पर
   सबके फूल सजेंगे
 
घर अपना हो या पड़ोस का
घर तो घर है
जो लहरा कर भेंटे सबको
भाई, वही महासागर है
 
टापू पर रहनेवाले
    क्या सूरज देंगे
 
अलग-अलग तो साँस
बेसुरी ही रहती है
साँस वही सुर में होती है
पीर सभी की जो सहती है
 
कान्हा की वंशी होगी
    तब रास रचेंगे