सांसों में लोबान जलाना आखि़र क्यों
पल पल तेरी याद का आना आखि़र क्यों
जिसको देखो वो मसरूफ है ख़ुद ही में
रिश्तों का फिर ताना बाना आखि़र क्यों
एक से खाँचें साँचें में सब ढलते हैं
फिर ये मजहब ज़ात घराना आखि़र क्यों
एक ख़ता यानी चाहत थी जीने की
पूरी उम्र का ये जुर्माना आखि़र क्यों
मस’अले उसके शम्सो कमर के होते हैं
मेरी मशक्कत आबो-दाना आखि़र क्यों
लोबान = सुगंधित गोंद, मसरूफ = व्यस्त, शम्सो-कमर = सूरज और चांद, आबो-दाना = दाना-पानी