साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ २
प्रभु बोले--"माँ! भय न करो,
एक अवधि तक धैर्य धरो।
मैं फिर घर आ जाऊँगा,
वन में भी सुख पाऊँगा।"
"हा! तब क्या निष्कासन है?
यह कैसा वन-शासन है?
तू सब का जीवन-धन है,
किसका यह निर्दयपन है?
क्या तुझसे कुछ दोष हुआ?
जो तुझ पर यह रोष हुआ।
अभी प्रार्थिनी मैं हूँगी,
प्रभु से क्षमा माँग लूँगी।
क्या प्रथमापराध तेरा--
और विनीत विनय मेरा
क्षमा दिलावेगा न तुझे?
वत्स! हुआ क्या, बता मुझे।
अथवा तू चुप ही रह जा,
बेटा लक्ष्मण! तू कह जा।
कठिन हृदय प्रस्तुत ही है,
डर न, दंड तो श्रुत ही है।"
"माँ! यह कोई बात नहीं,
दोषी मेरे तात नहीं,
दोष-दूरकारक हैं ये,
भूमि-भार-हारक हैं ये।
छू सकता कब पाप इन्हें?
प्राप्त पुण्य है आप इन्हें?
प्राप्य राज्य भी छोड़ दिया,
किसने ऐसा त्याग किया?
किन्तु पिता-प्रण रखने को--
सबको छोड़ बिलखने को।
कर मझली माँ के मन का,
पथ लेते हैं ये वन का!"
"समझ गई, मैं समझ गई,
कैकेयी की नीति नई।
मुझे राज्य का खेद नहीं,
राम-भरत में भेद नहीं।
मँझली बहन राज्य लेवें,
उसे भरत को दे देवें।
पुत्रस्नेह धन्य उनका,
हठ है हृदय-जन्य उनका।
मुझे राज्य की चाह नहीं,
उस पर भी कुछ डाह नहीं।
मेरा राम न वन जावे,
यहीं कहीं रहने पावे।
उनके पैर पडूँगी मैं,
कह कर यही अडूँगी मैं--
भरत-राज्य की जड़ न हिले,
मुझे राम की भीख मिले!"
रुकें राम-जननी जब तक,
गूँजी नई गिरा तब तक--
"नहीं, नहीं, यह कभी नहीं,
दैन्य विषय बस रहे यहीं।"
चकित दृष्टियाँ व्याप्त हुईं,
वहाँ सुमित्रा प्राप्त हुईं।
बधू उर्मिला अनुपद थी,
देख गिरा भी गद्गद थी!
देख सुमित्रा को आया--
प्रभु ने सानुज सिर नाया।
बोलीं वे कि--"जियो दोनों,
यश का अमृत पियो दोनों।"
सिंही-सदृश क्षत्रियाणी--
गरजी फिर यह कह वाणी--
"स्वत्वों की भिक्षा कैसी?
दूर रहे इच्छा ऐसी।
उर में अपना रक्त बहे,
आर्य-भाव उद्दीप्त रहे।
पाकर वंशोचित शिक्षा--
माँगेंगी हम क्यों भिक्षा?
प्राप्य याचना वर्जित है,
आप भुजों से अर्जित है।
हम पर-भाग नहीं लेंगी,
अपना त्याग नहीं देंगी।
वीर न अपना देते हैं,
न वे और का लेते हैं।
वीरों की जननी हम हैं,
भिक्षा-मृत्यु हमें सम हैं।
राघव! शान्त रहोगे तुम?
क्या अन्याय सहोगे तुम?
मैं न सहूँगी, लक्ष्मण! तू?
नीरव क्यों है इस क्षण तू?"
"माँ! क्या करूँ? कहो मुझसे,
क्या है कि जो न हो मुझसे?
अंगीकार आर्य करते--
तो कबके द्रोही मरते!
आज्ञा करें आर्य अब भी,
बिगड़ा बनें कार्य अब भी।"
लक्ष्मण ने प्रभु को देखा,
न थी उधर कोई रेखा!
बोले वे कि--"रहो भ्रातः!
और सुनो तुम हे मातः!
यदि न आज वन जाऊँ मैं--
किस पर हाथ उठाऊँ मैं?
पूज्य पिता या माता पर?
या कि भरत-से भ्राता पर?
और किस लिए? राज्य मिले?
है जो तृण-सा त्याज्य, मिले?
माँ की स्पृहा, पिता का प्रण,
नष्ट करूँ, करके सव्रण?
प्राप्त परम गौरव छोडूँ?
धर्म बेचकर धन जोडूँ?
अम्ब! क्या करूँ, तुम्हीं कहो?
सहसा अधिक अधीर न हो।
त्याग प्राप्त का ही होता,
मैं अधिकार नहीं खोता।
अबल तुम्हारा राम नहीं,
विधि भी उस पर वाम नहीं।
वृथा क्षोभ का काम नहीं,
धर्म बड़ा, धन-धाम नहीं।
किसने क्या अन्याय किया,
कि जो क्षोभ यों जाय किया?