साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ३
माँ ने पुत्र-वृद्धि चाही,
नृप ने सत्य-सिद्धि चाही।
मँझली माँ पर कोप करूँ?
पुत्र-धर्म का लोप करूँ?
तो किससे डर सकता हूँ?
तुम पर भी कर सकता हूँ।
भैया भरत अयोग्य नहीं,
राज्य राम का भोग्य नहीं।
फिर भी वह अपना ही है,
यों तो सब सपना ही है।
मुझको महा महत्व मिला,
स्वयं त्याग का तत्व मिला,
माँ! तुम तनिक कृपा कर दो,
बना रहे वह, यह वर दो!"
मौन हुए रघुकुलभूषण,
मानों प्रभा-पूर्ण पूषण।
कहाँ गई वह क्षोभ-घटा?
छाई एक अपूर्व छटा।
सबका हृदय-द्राव हुआ,
रोम रोम से श्राव हुआ!
मोती जैसे बड़े बड़े,--
टप टप आँसू टपक पड़े।
सीता ने सोचा मन में--
’स्वर्ग बनेगा अब वन में!
धर्मचारिणी हूँगी मैं,
वन-विहारिणी हूँगी मैं।’
तनिक कनोंखी अँखियों से,
अजब अनोंखी अँखियों से,
प्रभु ने उधर दृष्टि डाली,
दीख पड़ी दृढ़ हृदयाली।
संग-गमन-हित सीता के--
प्रस्तुत परम पुनीता के,
उच्च व्रत पर अड़े हुए--
रोम रोम थे खड़े हुए!
उठी न लक्ष्मण की आँखें,
जकड़ी रही पलक-पाँखें।
किन्तु कल्पना घटी नहीं,
उदित उर्मिला हटी नहीं।
खड़ी हुई हृदयस्थल में--
पूछ रही थी पल पल में--
’मैं क्या करूँ? चलूँ कि रहूँ?
हाय! और क्या आज कहूँ?
आः! कितना सकरुण मुख था,
आर्द्र-सरोज-अरुण मुख था,
लक्ष्मण ने सोचा कि--"अहो,
कैसे कहूँ चलो कि रहो!
यदि तुम भी प्रस्तुत होगी--
तो संकोच--सोच दोगी।
प्रभुवर बाधा पावेंगे,
छोड़ मुझे भी जावेंगे!
नहीं, नहीं, यह बात न हो,
रहो, रहो, हे प्रिये! रहो,
यह भी मेरे लिए सहो,
और अधिक क्या कहूँ, कहो?"
लक्ष्मण हुए वियोगजयी,
और उर्मिला प्रेममयी।
वह भी सब कुछ जान गई,
विवश भाव से मान गई।
श्री सीता के कंधे पर--
आँसू बरस पड़े झर झर।
पहन तरल-तर हीरे-से,
कहा उन्होंने धीरे से--
"बहन! धैर्य का अवसर है,"
वह बोली--"अब ईश्वर है।"
सीता बोलीं कि--"हाँ, बहन!
सभी कहीं, गृह हो कि गहन।"
कौशल्या क्या करती थीं?
कुछ कुछ धीरज धरती थीं।
प्रभु की वाणी कट न सकी,
युक्ति एक भी अट न सकी!
प्रथम सुमित्रा भ्रान्त हुईं,
फिर क्रम क्रम से शान्त हुईं।
खड़ी रहीं, न हिली डोलीं,
तब कौशल्या ही बोलीं--
"जाओ, तब बेटा! वन ही,
पाओ नित्य धर्म-धन ही।
जो गौरव लेकर जाओ--
लेकर वही लौट आओ।
पूज्य-पिता-प्रण रक्षित हो,
माँ का लक्ष्य सुलक्षित हो।
घर में घर की शान्ति रहे,
कुल में कुल की कान्ति रहे।
होते मेरे सुकृत कहीं,
तो क्यों आती विपद यहीं।
फिर भी हों तो त्राण करें,
देव सदा कल्याण करें।
और कहूँ क्या मैं तुमसे--
वन में भी विकसो द्रुम-से।
फिर भी है इतना कहना--
मुनियों के समीप रहना।
जिसे गोद में पाला है,
जो उर का उजियाला है,
बहन सुमित्रे! चला वही,--
जहाँ हिंस्र-पशु-पूर्ण मही!
यह गौरव का अर्जन है,
या सर्वस्व-विसर्जन है?
त्याग मात्र इसका धन है,
पर मेरा माँ का मन है।
हा! मैं कैसे धैर्य धरूँ?
क्या चिन्ता से दग्ध मरूँ?
यदि मैं मर भी जाऊँगी,
तो भी शान्ति न पाऊँगी!"
कहा सुमित्रा ने तब यों--
"जीजी! विकल न हो अब यों!
आशा हमें जिलावेगी,
अवधि अवश्य मिलावेगी।"
राघव से बोलीं फिर वे--
थीं उस समय अनस्थिर वे।
"वत्स राम! ऐसा ही हो,
फल इसका कैसा ही हो।
लेकर उच्च हृदय इतना,
नहीं हिमालय भी जितना,
तुमने मानव-जन्म लिया,
धरणी-तल को धन्य किया!
मैं भी कहती हूँ--जाओ,
लक्ष्मण को भी अपनाओ।