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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ५

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"हाथ हटा, ये वल्कल हैं,
मृदुतम तेरे करतल हैं।
यदि ये छू भी जावेंगे--
तो छाले पड़ आवेंगे!
कोसल बधू! विदेह लली!
मुझे छोड़ कर कहाँ चली?
वन की काँटों-भरी गली,
तू है मानस-कुसुम-कली।
दैव! हुआ तू वाम किसे?
रोको, रोको राम! इसे।
क्या यह वन में रह लेगी?
तप-वर्षा-हिम सह लेगी?
सौ कष्टों की कथा रहे,
वन की सारी व्यथा रहे,
जब आँधी-सी आवेगी--
यह सहसा उड़ जावेगी!"

आ पड़ता जब सोच कहीं--
रहता तब संकोच नहीं।
प्रभु ने जो निदेश पाया,
प्राणसखी को समझाया।
वन के सारे कष्ट कहे,
जो जो भय थे स्पष्ट कहे,
जिनको सुन कर मुँह सूखे,
देह दुःख पाकर दूखे--
"आतप, वर्षा, हिम सहना,
बाघ-भालुओं में रहना,
अबलाओं का काम नहीं;
वन में जन का नाम नहीं।
खान-पान सब कुछ खोना,
निशि में भी दुर्लभ सोना।
यही नहीं, वनचर होना,
रोने से भी मुँह धोना!"

किन्तु वृथा, सीता बोलीं,
डर से नेंक नहीं डोलीं--
"नाथ! न कुछ होगा इससे,
क्या कहते हो तुम किससे?
समझो मुझको भिन्न न हा!
करो ऐक्य उच्छिन्न न हा!
तुमको दुख तो मुझको भी,
तुमको सुख तो मुझको भी।
सुख में आ आकर घेरूँ,
संकट में अब मुँह फेरूँ,
देखेगा तो कौन उसे?
मरना होगा मौन उसे।
जो गौरव लेकर स्वामी!
होते हो काननगामी,
उसमें अर्द्ध भाग मेरा;
करो न आज त्याग मेरा।
मातृ-सिद्धि, पितृ-सत्य सभी,
मुझ अर्द्धांगी बिना अभी
हैं अर्द्धांग अधूरे ही;
सिद्ध करो तो पूरे ही।
सब के हित मैं वन में भी,
निर्जन, सघन गहन में भी,
सब व्रत-नियम निबाहूँगी,
सब का मंगल चाहूँगी।
सास-ससुर की स्नेह-लता--
बहन उर्मिला महाव्रता,
सिद्ध करेगी वही यहाँ,
जो मैं भी कर सकी कहाँ?
वन में क्या भय ही भय है?
मुझको तो जय ही जय है।
यदि अपना आत्मिक बल है,
जंगल में भी मंगल है।
कंटक जहाँ कुसुम भी हैं,
छाया वाले द्रुम भी हैं।
निर्झर हैं, दूर्वा-दल हैं
मीठे कन्द, मूल, फल हैं।
रहते हैं मिष्ठान्न पड़े,
लगते हैं फल मधुर बड़े।
बधुएँ लंघन से डरतीं--
तो उपवास नहीं करतीं!
मुक्त गगन है, मुक्त पवन,
वन है प्रभु का खुला भवन।
सलिल-पूर्ण सरिताएँ हैं,
करुण-भाव-भरिताएँ हैं।
उटज लताओं से छाया,
विटपों की ममता-माया।
खग, मृग भी हिल जावेंगे,
सभी मेल मिल जावेंगे।
देवर एक धनुर्धारी--
होंगे सब सुविधाकारी।
वे दिन-रात साथ देंगे,
मेरी रक्षा कर लेंगे।
मदकल कोकिल गावेंगे,
मेघ मृदंग बजावेंगे।
नाचेंगे मयूर मानी,
हूँगी मैं वन की रानी!
हिंस्र जीव हैं घोर जहाँ,
ऋषि-मुनि भी क्या नहीं वहाँ?
यहाँ नहीं जो शान्ति वहीं,
भव-विकार या भ्रान्ति नहीं।
अंचल होगा फूल-भरा,
कल-जल होगा कूल-भरा,
मन होगा दुख-भूल-भरा,
वन होगा सुख-मूल-भरा।