साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ ६
अथवा कुछ भी न हो वहाँ,
तुम तो हो जो नहीं यहाँ।
मेरी यही महामति है--
पति ही पत्नी की गति है।
नाथ! न भय दो तुम हमको,
जीत चुकी हैं हम यम को।
सतियों को पति-संग कहीं--
वन क्या, अनल अगम्य नहीं!"
सीता और न बोल सकीं,
गद्गद कंठ न खोल सकीं।
इधर उर्मिला मुग्ध निरी--
कह कर "हाय!" धड़ाम गिरी!
लक्ष्मण ने दृग मूँद लिये,
सबने दो दो बूँद दिये!
कहा सुमित्रा ने--"बेटी!
आज मही पर तू लेटी!"
"बहन! बहन!" कह कर भीता
करने लगीं व्यजन सीता।
"आज भाग्य जो है मेरा,
वह भी हुआ न हा! तेरा!"
माताएँ थीं मूर्ति बनी;
व्यग्र हुए प्रभु धर्म-धनी।
युग भी कम थे उस क्षण से;
बोले वे यों लक्ष्मण से--
"अनुज, मार्ग मेरा लेकर,
संग अनावश्यक देकर,
सोचो अब भी तुम इतना--
भंग कर रहे हो कितना?
हठ करके, प्यारे भाई,
करो न मुझको अन्यायी।"
"हाय! आर्य, रहिए, रहिए,
मत कहिए, यह मत कहिए।
हम संकट को देख डरें,
या उसका उपहास करें?
पाप-रहित सन्ताप जहाँ,
आत्म-शुद्धि ही आप वहाँ।"
"लक्ष्मण, तुम हो तपस्स्पृही,
मैं वन में भी रहा गृही।
वनवासी, हे निर्मोही,
हुए वस्तुतः तुम दो ही।"
कहा सुमित्रा ने तब यों--
निश्चय पर वितर्क अब क्यों?
जैसे रहें, रहेंगी हम,
रोकर सही, सहेंगी हम।"
उस मूर्च्छिता बधू का सिर,
गोदी में रक्खे अस्थिर,
कौशल्या माता भोली,
धाड़ मार कर यों बोली--
"देव वृन्द! देखो नीचे,
मत मारो आँखें मींचे।
जाओ, वत्स! कहा मैंने,
जो आ पड़ा सहा मैंने।
जो जी सकी--और जीने के चेष्टा किया करूँगी,
चौदह वर्ष बीतने पर तो मानों फिर न मरूँगी।
देख उस समय तुम तीनों को छूटा धैर्य धरूँगी,
मानों तीन लोक के धन से अपना भाग्य भरूँगी।
पक्ष सिद्ध हो,
लक्ष विद्ध हो,
राम! नाम हो तेरा;
धर्म-वृद्धि हो,
मर्म-ऋद्धि हो;
सब तेरे, तू मेरा।"
प्रस्थान,--वन की ओर,
या लोक-मन की ओर?
होकर न धन की ओर,
हैं राम जन की ओर।