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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ १

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चिरकाल रसाल ही रहा
जिस भावज्ञ कवीन्द्र का कहा,
जय हो उस कालिदास की--
कविता-केलि-कला-विलास की!

रजनी! उस पार कोक है;
हत कोकी इस पार, शोक है!
शत सारव वीचियाँ वहाँ
मिलते हा-रव बीच में जहाँ!
लहरें उठतीं, लथेड़तीं,
धर नीचे कितना थपेड़तीं,
पर ऊपर, एक चाल से,
स्थित नक्षत्र अदृष्ट-जाल-से!
तम में क्षिति-लोक लुप्त यों
अलि नीलोत्पल में प्रसुप्त ज्यों।
हिम-बिन्दु-मयी, गली-ढली,
उसके ऊपर है नभस्थली।
निज स्वप्न-निमग्न भोग है,
रखता शान्ति-सुषुप्ति योग है।
थक तन्द्रित राग-रोग है,
अब जो जाग्रत है वियोग है!

जल से तट है सटा पड़ा,
तट के ऊपर अट्ट है खड़ा।
खिड़की पर उर्मिला खड़ी,
मुँह छोटा, अँखियाँ बड़ी बड़ी!
कृश देह, विभा भरी भरी,
घृति सूखी, स्मृति ही हरी हरी!
उड़ती अलकें जटा बनी,
बनने को प्रिय-पाद-मार्जनी!
सजनी चुप पार्श्व से छुई,
अथवा देह स्वयं द्विधा हुई!
तब बोल उठी वियोगिनी,
जिसके सम्मुख तुच्छ योगिनी।
"तम फूट पड़ा, नहीं अटा,
यह ब्रह्माण्ड फटा, फटा, फटा!
किस कानन-कोण में, हला,
निज आलोक-समाधि निश्वला?
सखि, देख, दिगन्त है खुला,
तम है, किन्तु प्रकाश से धुला।
यह तारक जो खचे-रचे,
निशि में वासर-बीज-से बचे।
निज वासर क्या न आयँगे?
दृग क्या देख उन्हें न पायँगे?
जब लौं प्रिय लक्ष लायँगे,
यह तारे मुँद तो न जायँगे?
अलि, मैं बलि; ठीक बात है--
’कल होगा दिन, आज रात है।’

उडु-बीज न दृष्टियाँ चुगें,
सविता और शशी उगें उगें।
तब ऊपर दृष्टि क्यों करूँ?
यह नीचे सरयू, इसे धरूँ।
इसका कल कर्ण में भरूँ,
जल क्या है, बस डूब ही मरूँ!
धर यों मत, बात थी अरी;
मरती हूँ कब मैं मरी मरी?
मुझको वह डूबना कहाँ?
बस यों ही यह ऊबना यहाँ!
शिशु ज्यों विधि है खिला रहा,
ध्रुव विश्वास सुधा पिला रहा।
वह लोभ मुझे हिला रहा,
प्रिय का ध्यान यहाँ जिला रहा।
उनके गुण-जाल में पड़ी,
स्मृतिबद्धा जिसकी कड़ी कड़ी,
तड़पे यह प्रीति पक्षिणी;
सखि, है किन्तु प्रतीति रक्षिणी।
विकराल अराल काल है,
कर में दण्ड लिये विशाल है।
पर दाहक आह है यहाँ,
करती चर्वण चाह है यहाँ!
भय में मत आप पैठ जा,
सखि, बैठें हम, नेंक बैठ जा।
यह गन्ध नहीं बिखेरता,
वन-सोता वन-पार्श्व फेरता।
सुनसान सभी सपाट हैं,
अब सूने सब घाट-बाट हैं।
जड़-चेतन एक हो रहे,
हम जागें, सब और सो रहे!
निधि निर्जन में निहारती,
अपने ऊपर रत्न वारती,
कितनी सुविशाल सृष्टि है,
जितनी हा लघु लोक-दृष्टि है!
तम भूतल-वस्त्र है बना,
नभ है भूमि-वितान-सा तना।
वह पावक सुप्त राख में,
अब तो हैं जल-वायु साख में।
सरयू कब क्लान्ति पा रही,
अब भी सागर ओर जा रही।
सखि री, अभिसार है यही,
जन का जीवन-सार है यही।

सरयू, रघुराज वंश की,
रवि के उज्ज्वल उच्च अंश की,
सुन, तू चिरकाल संगिनी,
अयि साकेत-निकेत-अंगिनी!
इस सत्कुल की परम्परा,
जिससे धन्य ससागरा धरा;
जिसका सुरलोक भी ऋणी,
उसकी तू ध्रुव सत्य-साक्षिणी।
किसका वह तीर है भला,
जिससे मानव-धर्म है चला?
पहले वह है यहीं पला,
सरयू, तू मनु कीर्ति-मंगला!
रण-वाहन इन्द्र आप था,
कितना तेज तथा प्रताप था!
यश गाकर देव-नारियाँ
कहती हैं--बलि और वारियाँ!