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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ २

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किसने निज पुत्र भी तजा?
किसने यों कृत्कृत्य की प्रजा?
किसने शत यज्ञ हैं किये--
पदवी वासन की बिना लिये?
सुन, हैं कहते कृती कवि--
मिलती सागर को न जान्हवी,
स्व-भगीरथ-यत्न जो कहीं,
करते वे सरयू-सखा नहीं।
किसने मख विश्वजित् किया?
रख मृतपात्र सभी लुटा दिया?
न--न, बेच दिया स्वगात्र ही,--
रख दानव्रत-मान मात्र ही?
जिसका गत यों महान है,
सबके सम्मुख वर्त्तमान है,
कल से यह आज चौगुना,
उसका हो सुभविष्य सौगुना।

वश में जिनका भविष्य है,
श्रुति-द्रष्टा ऋषि-वृन्द शिष्य है,
जनकाख्य उन्हीं विदेह की
दुहिता मैं, प्रिय सर्व गेह की।
वह मैं इस वंश की बधू--
(यह सम्बन्ध अहा महा मधु!)
पद देकर जो मुझे मिला,
सुकृती थे विधि और उर्मिला।
पर हा! सुन सृष्टि मौन है,
मुझ-सा दुर्विध आज कौन है?
सरयू, वह दुःख क्या कहूँ,
अपनी ही करनी, न क्यों सहूँ?

कहला कर दिश्य सम्पदा,
हम चारों सुख से पलीं सदा।
मुझको अति प्यार से पिता
कहते थे निज साम-संहिता।
कुछ चंचल मैं सदा रही,
फिरती थी तुझ सी बही-बही।
इस कारण उर्मिला हुई,
गति में मैं अति दुर्मिला हुई।
नचती श्रुतकीर्ति ताण्डवी,
नदि, देती करताल माण्डवी।
भरती स्वर उर्मिला सजा,
गढ़तीं गीत गभीर अग्रजा।
सरयू, बिसरा विवेक है,
फिर भी तू सुन एक टेक है:--
’मुझसे समभाग छाँट ले,
पुतली, जी उठ, जीव बाँट ले!
अपना कह आप मोल तू,
स्वपदों से उठ, खेल, डोल तू।
मन की कह, नेंक बोल तू;
यह निर्जीव समाधि खोल तू।
पुचकार मुझे कि डाँट ले,
पुतली, जी उठ, जीव बाँट ले!
सुन-देख, स्वकर्ण-दृष्टि है;
कितनी कूजित-कान्त सृष्टि है।
मुझमें यह हार्द हृष्टि है,
सुख की आँगन में सुवृष्टि है।
अपना रस आप आँट ले,
पुतली, जी उठ,-जीव बाँट ले!’
फिरती सब घूम चौक में,
गिरती थीं झुक-झूम चौक में,
मचती वह धूम चौक में,
नचती माँ तक चूम चौक में!
दिखला कर दृश्य हाथ से,
कहतीं वे निज मग्न नाथ से--
’यह लो, अब तो बनी भली,
घर की ही यह नाट्यमण्डली!’
कर छोड़, शरीर तोल के,
हम लेतीं मिचकी किलोल के;
कहतीं तब त्रस्त धात्रियाँ--
’गुण को छोड़ बनो न पात्रियाँ!’
तटिनी, हम क्या कहें भला
निज विद्या, कर-कण्ठ की कला?
वह बोध पयोधि मूर्त्ति है;
फिर भी क्या घट-तृप्ति पूर्त्ति है?

मिथिलापुर धन्य धाम की
सरिता है कमला सुनाम की।
वह भी बस स्वानुकूल थी,
रखती प्लावित मोद-मूल थी।
तुझमें बहु वारि-चक्र हैं,
कितने कच्छप और नक्र हैं।
वह तो चिर काल बालिका,
लघु मीना, लघु वीचि-मालिका।
बहु मीन समीप डोलते,
हमको घेर मराल बोलते।
सब प्रत्यय के अधीन हैं,
खग हैं या मृग हैं कि मीन हैं।
वह सैकत शिल्प-युक्तियाँ,
वह मुक्ताधिक शंख-शुक्तियाँ,
सब छूट गईं वहीं वहीं;
सखियाँ भी ससुराल जा रहीं।

कमला-तट वाटिका बड़ी,
जिसमें हैं सर, कूप, बावड़ी।
मणि-मन्दिर में महासती,
गिरिजा हैमवती विराजती।