साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / दशम सर्ग / पृष्ठ ३
विहगावलि नित्य कूजती,
जननी पावन मूर्त्ति पूजती।
मिलता सबको प्रसाद था,
वह था जो सुख और स्वाद था।
यह यौवन आप भोग है,
सुख का शैशव-संग योग है।
वह शैशव हा! गया-गया,
अब तो यौवन-भोग है नया!
तितली उड़ नित्य नाचती,
सुमनों के सब वर्ण जाँचती।
जड़ पुष्प उसे निहारते,
निज सर्वस्व सदैव वारते।
यदि, तू खिलती हुई कली,
उड़ जाता जब है जहाँ अली,
उड़ जा सकती स्वयं वहीं,
सुख का तो फिर पार था कहीं?
अब भी वह वाटिका वहाँ,
पर बैठी यह उर्मिला यहाँ।
करुणाकृति माँ विसूरती,
गिरिजा भी बन मूर्त्ति घूरती।
सुनती कितने प्रसंग मैं,
कर देती कुछ रंग भंग मैं।
चुनती नर-वृत्त मोद से,
सुनती देव-कथा विनोद से।
शिवि की न दधीचि की व्यथा,
कहती हो किस शक्र की कथा!
यदि दानव एक भी मिला,
समझो तो सुर-मंत्र ही किला!
अमरों पर देख टिप्पणी,
कहतीं ’नास्तिक’ खीज माँ मणी।
हँस मैं कहती--प्रसाद दो,
तज दूँ तो यह नास्ति-वाद दो!
पितृ-पूजन आप ठानतीं,
सुर ही पूज्य तथापि मानतीं।
कहतीं तब माँ दया-भरी,--
’वह तेरे पितृ-देव हैं अरी।
सुन, मैं पति-देव-सेविनी।
तब तेरी प्रिय मातृ-देविनी।’
कहतीं तब यों ममाग्रजा--
’तुम देवाधिक हो प्रजा-व्रजा!’
सुर हों, नर हों, सुरारि हों,
विधि हों, माधव हों, पुरारि हों,
सरयू, यह राज-नन्दिनी,
सब की सुन्दर भाव-वन्दिनी।
सुनती जब मैं उमा-कथा,
तब होती मुझको बड़ी व्यथा।
’सुध’-माँ कहतीं कि ’खो उठी,
यह है देव-चरित्र रो उठी!’
निज शंकर-हेतु शंकरी,
तपती थीं कितनी भयंकरी।
उनकी शिव-साधना वही,
अयि, मेरी यह सान्त्वना रही!
बनतीं विकराल कालिका,
जब स्वर्गच्युत भीरु-पालिका,
जय हो! भय भूल भूल के,
कहती मैं तब ऊल ऊल के--
जब शुम्भ-निशुम्भ-मर्दिनी
बनती काम्य-कला कपर्दिनी,
करता तब चित्त बाल-सा,
जन-धात्री-स्तन-पान-लालसा!
हम भी सब क्षत्र-बालिका,
बन जावें निज-स्वर्ग-पालिका।
पर अस्त्र कहाँ? ’सभी कहीं।’
बढ़ जीजी कहने लगीं-’यहीं।’
दल विस्मय से अवाक था,
उनके हाथ उठा पिनाक था!
उस काल गिरा, उमा, रमा,
उनमें दीख पड़ीं सभी समा!!
सबने कल नाद-सा किया--
’कलिका ने नभ को उठा लिया!
कन ने मन की तोल-माप की,
यह बेटी निज धन्य बाप की!’
जन ने मन हाथ में लिया;
यह जीजीधन ने दिखा दिया।
वह हैं भुवनापराजिता,
तटिनी, गद्गद हो गये पिता--
’निज मानस-मग्न मीन मैं,
श्रुत हूँ सन्तत आत्म-लीन मैं;
पर प्राप्त मुझे महाद्भुता
वह माया बन मैथिली सुता।’
सुख था भरपूर तात को,
सरयू, सोच परन्तु मात को--
’वरदायिनि माँ, निबाहिए,
वर-ऐसे वर-चार चाहिए!’
उनसे तब तात ने कहा--
’करती हो तुम सोच क्यों अहा!
वर-देव अवश्य हैं, बढ़ें,
अपनी ये कलियाँ जिन्हें चढ़ें।
सरिते, वरदेव भी मिले,
वह तेरे प्रिय पद्म थे खिले।