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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ३

चूर कर डाले सुन्दर चित्र,
हो गये वे भी आज अमित्र!
बताते थे आ आ कर श्वास--
हृदय का ईर्ष्या-वह्नि-विकास।
पतन का पाते हुए प्रहार
पात्र करते थे हाहाकार--
"दोष किसका है, किस पर रोष,
किन्तु यदि अब भी हो परितोष!"

इसी क्षण कौसल्या अन्यत्र,
सजा कर पट-भूषण एकत्र--
बधू को युवराज्ञी के योग्य,
दे रही थीं उपदेश मनोज्ञ।
इधर कैकेयी उनका चित्र
खींचती थी सम्मुख अपवित्र।
दोष-दर्शी होता है द्वेष,
गुणों को नहीं देखता त्वेष।
राजमाता होकर प्रत्यक्ष,
उसे करके वे मानों लक्ष
खड़ी हँसती हैं वारंवार
हँसी है वह या असि की धार?
उठी तत्क्षण कैकेयी काँप,
अधर-दंशन करके कर चाँप।
भूमि पर पटक पटक कर पैर,
लगी प्रकटित करने निज वैर।
अन्त में सारे अंग समेट
गई वह वहीं भूमि पर लेट।
छोड़ती थी जब जब हुंकार,
चुटीली फणिनी-सी फुंकार!

इधर यों हुआ रंग में भंग,
उर्मिला उधर प्राणपति-संग,
भरत-विषयक ही वार्त्तालाप
छेड़ कर सुनती थी चुपचाप।
बताते थे लक्ष्मण वह भेद
कि "इसका है हम सबको खेद।
किन्तु अवसर था इतना अल्प
न आ सकते वे शुभ-संकल्प।
परे थी और न ऐसी लग्न,
पिता भी थे आतुरता-मग्न।
चलो, अविभिन्न आर्य की मूर्ति
करेगी भरत-भाव की पूर्ति।"

इस समय क्या करते थे राम?
हृदय के साथ हृदय-संग्राम।
उच्च हिमगिरि से भी वे धीर
सिन्धु-सम थे सम्प्रति गम्भीर।
उपस्थित वह अपार अधिकार
दीख पड़ता था उनको भार।
पिता का निकट देख वन-वास
हो रहे थे वे आप उदास।
हाय! वह पितृ-वत्सलता-भोग,
और निज बाल्यभाव का योग,
विगत-सा समझ एक ही संग,
शिथिल-से थे उनके सब अंग।
कहा वैदेही ने--"हे नाथ,
अभी तक चारों भाई साथ
भोगते थे तुम सम-सुख-भोग,
व्यवस्था मेट रही वह योग।
भिन्न-सा करके कोसलराज--
राज्य देते हैं तुमको आज।
तुम्हें रुचता है यह अधिकार?"
"राज्य है प्रिये, भोग या भार?
बड़े के लिए बड़ा ही दण्ड,
प्रजा की थाती रहे अखण्ड।
तदपि निश्चिन्त रहो तुम नित्य,
यहाँ राहित्य नहीं, साहित्य।
रहेगा साधु भरत का मन्त्र,
मनस्वी लक्ष्मण का बल-तन्त्र।
तुम्हारे लघु देवर का धाम,
मात्र दायित्व-हेतु है राम।"
"नाथ, यह राज-नियुक्ति पुनीत,
किन्तु लघु देवर की है जीत।
हुआ जिसके अधीन नृप-गेह,
सचिव-सेनापति-सह सस्नेह!"
कोपना कैकेयी की बात--
किसी को न थी अभी तक ज्ञात।
न जाने, पृथ्वी पर प्रच्छन्न
कहाँ क्या होता है प्रतिपन्न!

भूप क्या करते थे इस काल?
लेखनी, लिख उनका भी हाल।
भूप बैठे थे कुलगुरु-संग,
भरत का ही था छिड़ा प्रसंग।
कहा कुलगुरु ने--"निस्सन्देह
खेद है भरत नहीं जो गेह।
किन्तु यह अवसर था उपयुक्त
कि नृप हो जावें चिन्तामुक्त।"
भूप बोले--"हाँ मेरा चित्त
विकल था आत्म-भविष्य-निमित्त।
इसीसे था मैं अधिक अधीर,
आज है तो कल नहीं शरीर।
मार कर धोखे में मुनि-बाल
हुआ था मुझको शाप कराल।