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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ३

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तेरा पानी शस्त्र हमारे हैं धरे,--
जिसमें अरि आकण्ठमग्न होकर तरे।
तब भी तेरा शान्ति भरा सद्भाव है,
सब क्षेत्रों में हरा हृदय का हाव है।
मेरा प्रिय हिण्डोल निकुंजागार तू,
जीवन-सागर, भाव-रत्न-भाण्डार तू।
मैं हूँ तेरा सुमन, चढ़ूँ सरसूँ कहीं,
मैं हूँ तेरा जलद, बढ़ूँ बरसूँ कहीं।
शुचिरुचि शिल्पादर्श, शरद्घन पुंज तू,
कलाकलित, अति ललित कल्पना-कुंज तू।
स्वर्गाधिक साकेत, राम का धाम तू,
रक्षित रख निज उचित अयोध्या नाम तू।
राज्य जाय, मैं आप चला जाऊँ कहीं,
आऊँ अथवा लौट यहाँ आऊँ नहीं,
रामचन्द्र भवभूमि अयोध्या का सदा,
और अयोध्या रामचन्द्र की सर्वथा।"

आया झोंका एक वायु का सामने,
पाया सिर पर सुमन समर्पित राम ने।
पृथ्वी का गुण सरस गन्ध मन भा गया,
खगकुल का कल विकल करुण रव छा गया।
क्षण भर तीनों रहे मूर्ति जैसे गढ़े,
लेकर फिर निश्वास दीर्घ रथ पर चढ़े।
बैठ चले चुपचाप सभी निस्पन्द-से,
बढ़े अश्व भी निरानन्द गति मन्द से।
पहुँचे तमसा-तीर साँझ को संयमी,
वहीं बिताई गई प्रथम पथ की तमी।
स्वजन-शोच-संकोच तनिक बाधक हुआ,
किन्तु भरत-विश्वास शयन-साधक हुआ।
सजग रहे सौमित्रि, बने प्रहरी वही;
निद्रा भी उर्मिला-सदृश घर ही रही!
प्रभु-चर्चा में मग्न सुमन्त्र समेत थे,
बीत गई कब रात, सचेताचेत थे।

पर दिन पथ में निरख स्वराज्य-समृद्धियाँ,
प्रजावर्ग की धर्म-धान्य-धन-वृद्धियाँ,
गोरसधारा-सदृश गोमती पार कर,
पहुँचे गंगा-तीर धीर धृति धार कर।
यह थी एक विशाल मोतियों की लड़ी,
स्वर्ग-कण्ठ से छूट, धरा पर गिर पड़ी!
सह न सकी भव-ताप, अचानक गल गई;
हिम होकर भी द्रवित रही कल जलमयी।

’प्रभु आये हैं’, समाचार सुनकर नया,
भेट लिये गुहराज सपरिकर आगया।
देख सखा को दिया समादर राम ने,
उठकर, बढ़कर, लिया प्रेम से सामने।
"रहिए, रहिए, उचित नहीं उत्थान यह;
देते हैं श्रीमान किसे बहु मान यह!
मैं अनुगत हूँ; भूल पड़े कहिये कहाँ?
अपना मृगयावास समझ रहिये यहाँ।
कुशलमूल इस मधुर हास पर भूल सब,
वारूँ मैं निज नीलविपिन के फूल सब।
सहसा ऐसे अतिथि मिलेंगे कब, किसे,
क्यों न कहूँ मैं अहोभाग्य अपना इसे?
पाकर यह आनन्द-सम्मिलन-लीनता,
भूल रही है आज मुझे निज हीनता।
मैं अभाव में भाव लेखता हूँ तुम्हें,
निज गृह में गृह नहीं, देखता हूँ तुम्हें।
त्रुटियों पर पद-धूलि डालिए, आइए;
घर न देख कर, मुझे निहार निभाइए।
न हो योग्य आतिथ्य, अटल अनुरक्ति है;
चाहे मुझमें शक्ति न हो, पर भक्ति है।
अथवा मृगयाशील कभी फिर भी यहाँ,--
पड़ सकते हैं चारू चरण ये, पर कहाँ
आ सकती हैं वार वार माँ जानकी?
कुलदेवी-सी मिली मुझे हाँ, जानकी।
भद्रे, भूले नहीं मुझे आह्लाद वे,
मिथिलापुर के राजभोग हैं याद वे।
पेट भरा था, किन्तु भूख तब भी रही!
एक ग्रास में तृप्त न कर दूँ तो सही।
रूखा-सूखा खान-पान भी इष्ट है,
भाता किसको सदा मिष्ट ही मिष्ट है!
तुम सदैव सौभाग्यवती, जीती रहो;
उभय कुलों की प्रीति-सुधा पीती रहो।"
सिर गुह ने हँस उन्हें हँसा कर नत किया,
प्रभु ने तत्क्षण उसे अंक में भर लिया।
चौंका वह इस बार, देख कर राम को--
शैवलपरिवृत यथा सरोरुह श्याम को!
"एँ, ये वल्कल! दृष्टि कहाँ मेरी रही?
कौतुक, अब तक देख न पाई वह यही!
कहिए, ये किस लिए आज पहनें गये?
कहाँ राजपरिधान और गहनें गये?
क्या मुनि बनकर हरिण भुलाये जायँगे,
क्या वे चंचल, सहज समीप न आयँगे।
किसी वेष में रहे रूप ही धन्य यह,
जय आभरणावरण-मुक्त लावण्य यह।"
"वचनों से ही तृप्त हो गये हम सखे,
करो हमारे लिए न अब कुछ श्रम सखे!
वन का व्रत हम आज तोड़ सकते कहीं,
तो भाभी की भेंट छोड़ सकते नहीं।
तपस्वियों के विध्न दूर कर प्रेम से,
कुछ दिन हम वनवास करेंगे क्षेम से।
देखेंगे पुर-कार्य भरत पुण्यस्पृही,
होता है कृतकृत्य सहज बहुजन गृही।"
"ऐसा है तो साथ चलेगा दास यह,
होगा सचमुच बड़ा विनोदी वास वह।