साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ४
वन में वे वे चमत्कार हैं सृष्टि के,
पलक खुले ही रहें देख कर दृष्टि के!"
"सुविधा करके स्वयं भ्रमण-विश्राम की,
सब कृतज्ञता तुम्हीं न ले लो राम की।
औरों को भी सखे, भाग दो भाव से;
कर दो केवल पार हमें कल नाव से।"
ध्रुवतारक था व्योम विलोक समाज को,
प्रभु ने गौरव-मान दिया गुहराज को।
प्रकृत वृत्त जब सुना परन्तु विषाद का,
मुरझ गया मन सुमन-समान निषाद का।
देवमूर्ति वे राजमंदिरों के पले,
कुश-शय्या पर आज पड़े थे तरु-तले।
हाय! फूलते हुए भाग्य कैसे फले,
उस भावुक के अश्रु उमड़ कर बह चले।
"घुरक रही है साँय साँय कर रात भी,
मानों लय में लीन तरंगाघात भी।
तब भी लक्ष्मण घूम रहे हैं जाग कर,
निद्रा का निज तुच्छ भाग तक त्याग कर।
यह किसका अभिशाप न जाने हे अरे,
चलती है दुर्नीति राज्य से ही अरे!
खोकर ऐसे लाल, लिया क्या केकयी?
क्या करना था तुझे, किया क्या केकयी?
इस भव पर है असित वितान तना सदा,
जिसके खम्भे दुःख, शोक, भय, आपदा।
उस अचिन्त्यगति गगन तले जब तक पड़े,
हम हैं कितने विवश सभी छोटे-बड़े!
जो प्रभु निज साकेत छोड़, वन को चला;
उसके सम्मुख श्रृंगवेरपुर क्या भला?
पर उसको दूँ और कौन उपहार मैं?
हूँगा कल कृत्कृत्य आपको वार मैं।"
बद्धमुष्टि रह गया वीर, ज्यों भ्रान्त हो,
बोले तब सौमित्रि--"बन्धु, तुम शान्त हो।
तुमको जिनके लिए दुःख या रोष है,
स्वयं उन्हें निज हेतु सौख्य-सन्तोष है।
श्रृंगवेरपुर-राज्य करो तुम नीति से,
आर्य तृप्त हैं मात्र तुम्हारी प्रीति से।
मिला धर्म का आज उन्हें वह धन नया,
जिस पर कोसलराज्य स्वयं वारा गया।
समय जा रहा और काल है आ रहा,
सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा।
कीट-पूर्ण हैं कुसुम, कण्टकित है मही,
जो सब से बच निकल चले, विजयी वही।
कर्म-हेतु ही कर्म कहीं हम कर सकें,
तो उनके फल हमें कहाँ से धर सकें।
कर्त्ता मानों जिसे तात, भोक्ता वही;
बन्ध-मुक्ति की एक युक्ति जानों यही।
मेरे लिए विषाद व्यर्थ है, धन्य मैं;
सुप्त नहीं हूँ, सतत सजग, चैतन्य मैं।
मैं तो निज भवसिन्धु कभी का तर चुका,
राम-चरण में आत्मसमर्पण कर चुका।
जीव और प्रभु-मध्य अड़ी माया खड़ी,
वह दुरत्यया और शक्तिशीला बड़ी।
साधो उसको और मनाओ युक्ति से,
सखे, समन्वय करो भुक्ति का मुक्ति से।"
निकल गई चुपचाप निशा अभिसारिका,
पढ़ी द्विजों ने बोधमयी कल-कारिका।
सबने मज्जन किया, निरख प्रातश्छटा;
स्वर्णघटित थी रजत जाह्नवी की घटा।
लेकर वट का दूध जटा प्रभु ने रची,
अब सुमन्त्र के लिए न कुछ आशा बची।
"स्वयं क्षात्र ले लिया आज वैराग्य क्या?
शान्त सर्वथा हुआ हमारा भाग्य क्या?"
प्रभु ने उन्हें प्रबोध दिया तब प्रीति से--
"व्रत ले तो फिर उसे निभादे रीति से।
जटा-जूट पर छत्र करे छाया भले,
किन्तु मुकुट की हँसी मात्र है तरु-तले।
सौम्य, यहाँ क्या काम भला विधि वाम का?
यह तो है सौभाग्य तुम्हारे राम का।
जाकर मेरा कुशल कहो तुम तात से,
दो सबको सन्तोष, मिले जिस बात से।
मूल-तुल्य तुम रहो, फूल-से हम खिलें;
कब बीते यह अवधि और आकर मिलें।
फिर भी ये दिन अधिक नहीं हैं, अल्प हैं;
काल-सिन्धु में बिन्दु-तुल्य युग-कल्प हैं।"
समयोचित सन्देश उन्हें प्रभु ने दिये;
सबके प्रति निज भाव प्रकट सबने किये।
कह न सके कुछ सचिव विनीत विरोध में,
उमड़ी करुणा और प्रबोध-निरोध में।
देख सुमन्त्र-विषाद हुए सब अनमनें;
आये सुरसरि-तीर त्वरित तीनों जनें।
बैठीं नाव-निहार लक्षणा व्यंजना,
’गंगा में गृह’ वाक्य सहज वाचक बना।
बढ़ी पदों की ओर तरंगित सुरसरी,
मोद-भरी मदमत्त झूमती थी तरी।
धो ली गुह ने धूलि अहल्या तारिणी,
कवि की मानस-कोष-विभूति-विहारिणी।
प्रभु-पद धोकर भक्त आप भी धो गया,
कर चरणामृत-पान अमर-सा हो गया!
हींस रहे थे उधर अश्व उदग्रीव हो,
मानों उनका उड़ा जा रहा जीव हो।
प्रभु ने दिया प्रबोध हाथ से, हेर कर;
पोंछा गुह ने नेत्र-नीर, मुँह फेर कर।
कोमल है बस प्रेम, कठिन कर्तव्य है;
कौन दिव्य है, कौन न जानें भव्य है?