सातमोॅ अध्याय / गीता / कणीक
सातमोॅ अध्याय
(ज्ञान विज्ञान योगोॅ के नामोॅ से सातमोॅ अध्याय में भगवाने सब कुछ छेकै, एकरा मानना ही श्रेष्ठतम उपाय छै-एकरे सन्देश उद्यृत छै। एकरा लेली ज्ञान आरो चेतना के उद्गम स्थली के बृतान्त छै। यै अध्याय केॅ कोय-कोय परम ज्ञान योग भी बतावै छै। ईश्वर केॅ समझै लेली सत्संग, बेद आरो ब्रह्म ज्ञानोॅ के जरूरत छै। दुःख सें छुटकारा आरो जन्म-मृत्यु के सांसारिक बन्धन से मुक्ति के विवेचन यै अध्याय के मुख्य विषय क्षेत्र छेकै। प्रकृति के त्रिगुणोॅ के चक्कर से निवटै लेली परमात्मा के शरण ही एकमात्र सही उपाय छै।)
योगाभ्यासोॅ में रहभौ सतत
श्री कृष्णें कहलकै हे भारत!
एकाग्र चित्त जों तों धरमौॅ
निश्चय ही तों हमरा जानभौं॥1॥
हम्में शिक्षा के दै वास्ता, ज्ञानोॅ-विज्ञानोॅ के रस्ता
जेकरा जानी बनभौॅ योगी, नै बचथौं सीखै लेॅ कुछ भी॥2॥
कै एक सहस्त्रोॅ में मानव, कोय एक्खैं सीखै शिक्षा सब
जे सिद्ध पुरूष भी कहलावै, ‘सच’ हमरोॅ मुश्किल सें पावै॥3॥
भूमि, जल, अग्नि, बायु खाम्, मन बुद्धि अहं है आठ नाम
एकरा सें हमरोॅ भिन्न प्रकृति, ज्ञानी ही लगाबै आपनोॅ मति॥4॥
है प्रकृति तत्व सें हम्में भिन्न, एकरा बूझ्हौ तों, हे अर्जुन!
यै प्रकृति तत्त्वें मानव निर्भर, हम्में वै शक्ति सें ऊपर॥5॥
जगती के हर भौतिक प्राणीं, हमर्है में चेतनता जानीं
जानै वें हमरा श्रृष्टिकार, जानै वें हमरा प्रलयकार॥6॥
बड़ सच्चाई हमरोॅ परिचय, तों बुझोॅ-समझोॅ धनन्जय!
हर चीज रहै मुझ लागोॅ सें, जैसें मोती टिकै धागोॅ सें॥7ं।
पानी में स्वाद छी कुन्ती पुत्र! सूरज-चानोॅ में ज्योति सूत्र
वेदोॅ में ‘ओउम’ हमीं छी तेॅ, स्वर आरो योग्यता मनुजोॅ के॥8॥
धरती के गन्ध हमीं छेकां, अग्नि के ताप हमीं छेकां
प्राणी केॅ प्राण छै हमरा सें, तपसी के तपोॅ छै हम्हरै सें॥9॥
हम्हीं छेकियै श्रृष्टि रोॅ बीज, हे पार्थ! सभ्भे बुद्धि अजीज
तेजस्वी के छी तेज हम्में, शक्ति के धारक ब्रह्म हम्में॥10॥
बलबानोॅ केॅ बल हमरा सें, हे भारत! धरम भी हमर्है सें
ओकरा नै कटियो दोष लगै, जें काम शास्त्र विधि सें जोगै॥11॥
हे सात्विक-राजस-तामस तिन, जे छेकै प्रकृति केरोॅ त्रिगुण
हौ हमर्है सें संचालित छै, फिर भी स्वतंत्र हमरोॅ चित्त छै॥12॥
है तीनोॅ गुण सें जग मोहित, पर हम्में नैं छी सम्मोहित
हम्में यै सब से ऊपर छी, अव्यय त्रिगुणोॅ के सर पर छी॥13॥
यै त्रिगुण शक्ति के माया सें, कोइयो नैं बचै यै छाया सें
जे हमरोॅ शरण पहुंच पैतै, ओकरा वै मायां नै छूतै॥14॥
हौ मूढ आरो दुष्कृतक मनुज, जेकरोॅ प्रकृति छै साम्य दनुज
ओकरा त्रिगुणे भरमावै छै, हौ हमरोॅ शरण नै आवै छै॥15॥
बस, चार तरह के पावन जन, हमरा भक्ति में रहै मगन
अर्जुन वै में धनकामी छै, जिज्ञासु आर्त्त औ ज्ञानी छै॥16॥
वै चार्हौ में ज्ञानी ही चतुर, जेकरा छै भक्ति केरोॅ गुर
हौ हमरोॅ बड्डी दुलारोॅ छै, परमात्मा जेकरा प्यारोॅ छै॥17॥
निश्चय उदार हौ आत्मा छै, ज्ञानी ही छुवै परमात्मा छै
वें हमरा जल्दी पाबै छै, जे आपनोॅ ज्ञान खपाबै छै॥18॥
हमरा आबी-आबी सुमिरै, जे कत्तेॅ दाफी जियै औ मरै
कारण के कारण मानी केॅ हमर्है परमात्मा जानी केॅ॥19॥
जेकरा मन में कोय इच्छा छै, वें अलग्है आपनोॅ परीक्षा दै
वें पूजै अन्योॅ देवोॅ केॅ वैदिक रीति के श्रोतों सें॥20॥
पर हर नर, देव केॅ आत्मा छै, हमरे स्वरूप परमात्मा छै
यै लेली देव जे पूजै छै, वै देब्हैं हमरा खोजै छै॥21॥
जें अन्य देव विश्वाश करै, वै देब्हैं हमरोॅ भक्ति धरै
वैदेवें भक्तोॅ केॅ जे दै, हौ हम्हरै सें वें आबी लै॥22॥
देवोॅ केॅ अल्प बुद्धि पूजै, वे इच्छा पूरन ही खोजै
फेनू हौ देवलोक जैतै, हमरोॅ परमात्म में नै मिलतै॥23॥
निर्बुद्धि नैं हमरा जानै छै, नैं तेॅ हमरा पहिचानै छै
छोटका ज्ञानी केॅ कहाँ पता? सर्वोच्च ठो हमरोॅ अता पता॥24॥
मूढ़ निर्बुद्धि तम ही सहै, हमरा प्रकाश से दूर रहै
हौ योगमाया में ग्रसलोॅ छै, आपन्है दुनियाँ में फंसलोॅ छै॥25॥
हे अर्जुन! हमरा नै जानै, बेदोॅ के ध्वनि नैं पहिचानै
हम्में त्रिकालोॅ के ज्ञाता, ज्ञानी के ज्ञानी, विधाता॥26॥
जन्मथै द्वेष-इच्छा सें रत्त, जे द्वन्द्व मोह में हे भारत
हौ प्राणी के छै बात अलग, समझै के बात हे परंतप!॥27॥
पुर्वोॅ जन्मोॅ के पुण्य वास, यै जन्मोॅ के पापोॅ के नाश
जे द्वन्द्व मोह सें मुक्त पुरूष, हमर्है भक्ति में सतत पुरूष॥28॥
जे मानव ब्रह्म के ज्ञानी छै, अध्यात्म कर्म अनुगामी छै
जे जरा-मरण सोचै लेली, हमरे आश्रित मोक्षोॅ लेली॥29॥
जें जानै हमरा परम पुरूष
देवाधिदेव आरो यज्ञ पुरूष
वें युक्त चेतनां सें पूजै
मृत्युकाल्हौं हमर्है बूझै॥30॥