सामवेदी ऋचा बन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
तुम्हरे लिए आरती का दीया बन
जला जब से जलता चला आरहा हूँ।
न जाने गये बीत सतयुग हैं कितने
न जाने गये बीत त्रेता हैं कितने;
न जाने गये बीत द्वापर हैं कितने
न जाने गये बीत कलियुग हैं कितने।
मगर काल-विजयी पथिक बन तुम्हारा
चला जब से चलता चला आ रहा हूँ॥1॥
किसी ने कहा-तुम कहीं पर नहीं हो
किसी ने कहा-तुम कहाँ पर नहीं हो;
भले ही किसी के लिए हो न हो तुम
मगर काव्य का सत्य मेरा तुम्हीं हो।
उसी सत्य को सामवेदी ऋचा बन
दिया स्वर जो देता चला आ रहा हूँ॥2॥
अभी तो मिली जो झलक है तुम्हारी
लगी दूज के चाँद की भंगिमा-सी;
मुझे चाहिए बिम्ब वह पूर्ण जिससे
बनी यामिनी यामिनी पूर्णमासी।
उसी बिम्ब को ग्रहण करने मैं दर्पण
बना जब से बनता चला आ रहा हूँ॥3॥
न मैंने कभी हार स्वीकार की है
करूँगा न अब भी, भले टूट जाऊँ;
मिलोगी कभी, शून्य में ही सही तुम
करोड़ों से मैं छूट ही क्यों न जाऊँ!
इसी से खड़े एक पग, बाँसुरी बन
बजा जब से बजता चला आ रहा हूँ॥4॥
दिखेगा मुझे जब कि वह बिम्ब पूरा
वशीभूत जिसके हुआ मैं युगों से;
लिखूँगा महाकाव्य तब ही मिलन का
तुम्हें रोक लूँगा विरह के दृगों से
उसी के लिए साधना-हिम शिखर बन
गला जब से गलता चला आ रहा हूँ॥5॥