साहिबे-बज़्म ने न पहचाना
कैसे मुमकिन हो यहाँ रह पाना
ज़िंदगानी मिरी रेहन रक्खी
और वो मांगते हैं नज़्राना
हुरुफ़-ए-इश्क़ तीन ही तो हैं
मुझपे भारी हैं मगर कह पाना
(रचनाकाल : 2003)
साहिबे-बज़्म ने न पहचाना
कैसे मुमकिन हो यहाँ रह पाना
ज़िंदगानी मिरी रेहन रक्खी
और वो मांगते हैं नज़्राना
हुरुफ़-ए-इश्क़ तीन ही तो हैं
मुझपे भारी हैं मगर कह पाना
(रचनाकाल : 2003)