Last modified on 3 सितम्बर 2012, at 13:00

सिढ़ियां कंधों को वो करता गया / अश्वनी शर्मा


सिढ़ियां कंधों को वो करता गया
कामयाबी का सिला मिलता गया।

इक प्रबंधन के गुरू के गुर पकड़
लक्ष्यवेधी बाण सा बढ़ता गया।

शत प्रतिशत रोज वो देता रहा
और अंदर से कहीं खिरता गया।

भर लिया घर इस कदर सामान से
घर के अंदर घर कहीं मरता गया।

जो कभी सुनता था सुब्बुलक्ष्मी
चिल्ल-पों से रात-दिन भरता गया।

वो मुसाफिर था हजारों मंजिलें
मंज़िलें औ कारवां चलता गया।

हर नये सूरज को उसने धोक दी
हर नया सूरज उसे छलता गया।