सिपाहियों की रहनि / प्रेमघन
जहँ मध्यान समय दीने चौकन महँ चरबन।
चाभि चाभि पीयत सिखरन पुनि ह्वै प्रसन्न मन॥253॥
खात लगाय पान सुरती कोउ पीवत हुक्का।
विविध बतकही करत किते करि धक्का-मुक्का॥254॥
मांजत कोउ तरवार, कोऊ लै पोछत म्यानहिं।
कोऊ ढाल गैंड़े की फुलिया मलि चमकावहिं॥255॥
कोउ धोवत बन्दूक, बन्द बाँधत खुसियाली।
कोउ माजत बरछीन सांग उर बेधन वाली॥256॥
कौउ कटार माजत, कोउ जुगल तमंचे साजत।
कोउ ढालत गोली, कोउ बुंदवन बैठि बनावत॥257॥
कोउ बर्रोही खूनि खानि कै बरत पलीते।
कोउ सुखाय काटत, मुट्ठा बाधत निज रीते॥258॥
भरत तोसदानन कोउ, सिंगरा भरत बरूदहिं।
कोउ रंजक झुरवावहिं खोली झारहिं पोछहिं॥259॥
सिंगरा साजि परतले पेटी कोऊ साफ़ करि।
टाँगत निज-निज खूँटिन पर निज हथियारन धरि॥260॥
गुलटा कोऊ बनावहिं कोउ गुलेल सुधारहिं।
ढोल कसहिं कोउ बैठि, चिकारे कोऊ मिलावहिं॥261॥
ठीक साज कै मिले युवक रामायन गावत।
मजीरा डण्डताल करताल बजावत॥262॥
प्रेम भरे त्यों वृद्ध भक्त कोउ अर्थ करैं तहँ।
जब वे गहैं बिराम, राम रस यों बरसैं जहँ॥263॥
कहूँ वृद्ध कोउ बीर युद्ध की कथा पुरानी।
अपनी करनी सहित युवन सों कहहिं बखानी॥264॥
असि, गोली, बरछीन छाप दिखरावैं निज तन।
लखि कै साँचे साटिक-फिटिक सराहैं सब जन॥265॥
वृद्ध बीर इक रह्यो सुभाव सरल तिन माहीं।
जाढिग हम सब बालक गन मिलि निज प्रति जाहीं॥266॥
बीर कहानी जो कहि हम सबके मन मोहै।
भारी भारी घाव जासु तन पैं बहु सोहै॥267॥
पूछयो हम इक दिवस "कहा ये तुमरे तन पर"।
हँसि बोल्यो निर्दन्त "सबै ये गहने सुन्दर"॥268॥
जे गहने तुम पहिनत ये बालक नारिन हित।
अहैं बने नहिं पुरषन पैं ये सजत कदाचित॥269॥
पुरषन की शोभा हथियारन हीं सों होती।
कै तिनके घायन सों पहिर न हीरा मोती॥270॥
बोले हम यों भयो चींथरा बदन तुम्हारो।
नेकहु लगत न नीक भयंकर परम न कारो॥271॥
कह्यो वृद्ध हँसि तुम अबोध शिशु जानत नाहीं।
होत भयंकर पुरुष, नारि रमनीय सदाहीं॥272॥
कोमल, स्वच्छ, सुडौल सुघर तन सुमुखि सराही।
बाँके, टेढ़े, चपल, पुष्ट, साहसी सिपाही॥273॥
होत न जानत जे मरिबे जीबे की कछु भय।
अभिमानी, स्वतन्त्र, खल अरि नासन मैं निर्दय॥274॥
सदा न्याय रत, निबल दीन गो द्विज हितकारी।
निज धन धर्म्म भूमि रच्छक आसृत भय हारी॥275॥
कुरुख नजर जे इन्द्रहु की न सकत सहि सपने।
तृन सम समुझैं अरि सन्मुख लखि आवत अपने॥276॥
पुनि अपने बहु बार लरन की कथा कहानी।
बूढ़ बाघ सों डपटि-डपटि कैं बोलत बानी॥277॥
रहत पहर दिन जबै जानि संध्या को आगम।
सायं कृत्य हेतु तैयारी होत यथा क्रम॥278॥
धोइ भंग कोऊ कूंड़ी सोंटा सों रगड़त।
कोउ अफीम की गोली लै पाप नी सों निगलत॥279॥
कोउ हुक्का अरु कोऊ भरि गाँजा पीयत।
कोऊ सुरती खात बनै कोउ सुंघनी सूँघत॥280॥
कोउ लै डोरी लोटा निकरत नदी ओर कहँ।
कोऊ लै गुलेल, गुलटा बहु भरि थैली महँ॥281॥
कोऊ लिये बंदूक जात जंगल महँ आतुर।
मारत खोजि सिकार सिकारी जे अति चातुर॥282॥
कोऊ फँसावत मीन नदी तट बंसी साधे।
भक्त लोग जहँ बैठे रहत ईस आराधे॥283॥
संध्या समय लोग पहुँचत निज-निज डेरन पर।
निज निज रुचि अनुसार वस्तु लीने निज-निज कर॥284॥
कोउ खरहा कोउ साही मारे अरु निकिआये।
कोउ कपोत, कोउ हारिल, पिंडुक, तीतर लाये॥285॥
कोउ तलही, मुर्गाबी, कोऊ कराकुल, मारे।
काटि, छाँटि, पर, चर्म, अस्थि, लै दूर पवारे॥286॥
कोउ भाजी जंगली, कोऊ काछिन तैं पाये।
बहुतेरे पलास के पत्रन तोरि लिआये॥287॥
बिरचत पतरी अरु दोने अपने कर सुन्दर।
कोऊ मसाले पीसत, कोउ चटनी ह्वै ततपर॥288॥
कोउ सीधा नवहड़ ल्यावत मोदी खाने सन।
खरे जितै रुक्का लीने बहु आगन्तुक जन॥289॥
जोरत कोउ अहरा, कोऊ पिसान लै सानत।
कोऊ रसोई बनवत अरु कोऊ बनवावत॥290॥
दगत जबै इक ओरहिं सों चूल्हे सब केरे।
जानि परत जनु उतरी फौज इतैं कहुँ नेरे॥291॥
आज तहाँ नहिं कोऊ कारो कोहा लखियत।
नाहिं कोउ साज समाज, जाहि निरखत मन बिसरत॥292॥
बटत बुतात, जहाँ रुक्के, साँझहि सो पहरे।
अतिहि जतन सों चारहुँ दिसि दुहरे अरु तिहरे॥293॥
जाँचत जमादाद दारोगा जिन कहँ उठि निसि।
रत पलीता रहत तुपक दारन को दिसि दिसि॥294॥
घूमत जोधा गन जहँ पहरन पर जिसि चटकत।
आवत हरिकारन हूँ को जगदिसि पग थहरत॥295॥