सीमित-असीमित / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
तन से सीमित हूँ, पर अन्तर
में असीम आकाश लिए हूँ।
मैं उसका ही रूप एक, जिस
की अभिव्यक्ति सृष्टि यह सारी;
है मेरा विस्तार कि उतना
है जितनी समष्टि यह सारी।
श्वासों से सीमित हूँ, पर मैं
अमर, असीमित श्वास लिए हूँ।1।
आदि काल से अब तक मैंने
जो पाया है और कमाया;
उस सब को लेकर अपने में
मैं हूँ इस धरती पर आया।
काल-अवधि में सीमित हूँ पर
कालजयी इतिहास लिए हूँ।2।
मेरी भाषा में ध्वनियाँ हैं
धरती के कोने-कोने की;
करता हूँ अभिव्यक्त भावना
जगती के हँसने-रोने की।
शब्दों से सीमित, पर अर्थों
का अनंत विन्यास लिए हूँ।3।
समय, न जिसका आदि-अन्त है
मैं उसका ही अंश एक हूँ;
रही बदलती,पर न मिटी जो
मैं वह शाश्वत काल-रेख हूँ।
क्षण-पल, दिवस-मास में सीमित
पर असंख्य मधुमास लिए हूँ।4।
क्षिति-जल-पावक-गगन-पवन के
जिन तत्वों से हूँ निर्मित मैं;
जब रहता उपयोग न मेरा
हो जाता उनको अर्पित मैं।
इस स्वरूप में सीमित, पर
अनंत रूपों में वास लिए हूँ।5।
मैं था कल, हूँ आज, रहूँगा
कल भी, हर क्षण विद्यमान हूँ;
मैं हूँ भूत, भविष्यत में हूँ,
मैं ही जीवित वर्तमान हूँ।
प्रलय-काल से सीमित हूँ, पर
काल-पुरुष की साँस लिए हूँ।6।
12.11.76