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सुख / मुकेश निर्विकार

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सुख!
क्या है सुख?
जीवन के भिन्न-भिन्न पड़ावों पर
भिन्न-भिन्न एहसास रहे हैं सुख के।

बचपन में माँ के आँचल में छुपकर
दूध पीते लोरियाँ सुनने में सुख था
तनिक और बड़े होने पर
‘लुका-छिपी’, ‘गुल्ली-डांडा’ और ‘खो-खो’ खेलने में सुख दिखा
तब उन दिनों, बहुत सुखद लगता था
‘अरण्ड’ के पेड़ों के झुरमुट से ‘चीया’ बीनना,
झरबेरी के बेर खाना,
या अमरूद की बगिया से अमरूद चुराना।

यौवन में षोड्शी बालाओं के
रूप-सौन्दर्य में सुख दिखा
तब जैसे प्रेम-प्रीत के कल्पना-लोक में
विचारणे में ही सुख था।

जीवन की इस अधेड़ाव्स्था में
जिम्मेदारियों के असहनीय एहसास तले दबकर ,
मुझे अब इनमें से
किसी भी बात से
सुख नहीं दिखता है।

अब सुखद जान पड़ता है तो बस-
कोरा निठल्लापन, निर्बोध अवकाश के क्षण,
बेतहाशा भाग-दौड़ अरु प्रतिस्पर्धा से परे
कोई एक घटनाविहीन दिन
कतई ठहरा हुआ समय!

धारणा बदलेगी मेरे
एक दिन यह भी
एहसास है मुझे
फिलवक्त भी इसका
क्योकि
आत्महत्या का सबब बन जाता है
कई बार
जीवन में कोरा निठ्लाप्पन।

दरअसल, सुख
चीजों के होने में नहीं, अपितु,
उनके न होने में है
उसमें सुख है जिनके लिए हम
कलपते रहे निरंतर
तड़पते रहें उम्रभर
लालयित होकर।

मनमाफिक न मिल पाने की अवस्था ही करती है
सुख के किसी कल्पना लोक का सृजन
अभावों की कोख से ही जन्मते हैं
सुख के कोमल भाव ।

अतृप्त आदमी ही कर सकता है
सुख की कल्पना
अघाये मानस के पास फटकते नहीं हैं
सुख के स्वप्न भी
गहराती हैं वहाँ खालिस बोरियत, केवल अवसाद
और प्रवृति आत्मघाती!


बहुत सुखद होता है
किसी अलभ्य सुख की आस में
जीवन-भर कलपते रहना!

जिंदगी इसी उमींद में तो आगे बढ़ती है...

.... अधूरी लालसाओं की पूर्ति के
शाश्वत उपक्रम का नाम ही तो जीवन है।