सुनो पंछी सरीखे मन / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
सुनो पंछी सरीखे मन चलो अब उस अजाने पथ
जहाँ सब लोग मिल समभाव की वीणा बजाते हों।
यहाँ है शोर घातों का मनुजता पर हुए हैं व्रण,
द्वितरफी द्वेष की ज्वाला गरीबों को है झुलसाती।
उठी है राजपथ से भी विपर्यय दीन हित बोली,
दशा किंकर, कुबेरों के महल को देख अकुलाती।
कठिनतम कर्म अब नैराश्य के द्वारे बना याचक
चलो उस द्वार जो श्रमहित शुचित तोरण सजाते हों।
किसी की रात भूखी है वमन करते किसी के श्वान,
सजाकर अन्न थाली में रुहानी पोज कुछ लेते।
विदूषण दुर्वचन कह बाल भिक्षुक को डराते क्यों?
लिये घरबार काँधे वह तनिक तो सोच कुछ लेते।
विवशता डाकिनी बनकर चबाती भाग्य की शुभता
चलो उन गुरुवरों के पास जो साबर पढ़ाते हों।
छली हैं द्रोपदी अब तो स्वयं ही पांडवों ने मिल,
कहो कैसे कहें दोषी दुशासन औ सुयोधन को?
नहीं अब चीर ही बढ़ता दिखाई दे रहा कान्हा,
तजो अनुराग की निद्रा चतुर्दिश में प्रबोधन हो।
अहो! अब दुर्वचन सुनना हमारी शक्ति से बाहर
चलो उस देव के द्वारे जयंतह जो कहाते हों।