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सुबह की बयार / प्रेमशंकर रघुवंशी
Kavita Kosh से
रात की गाढ़ी नींद से
बासे हो चुके बदन में
ताज़गी भरती
सुबह की बयार
ओस की आभा से नहलाती है
फिर अरुणोदय के गुनगुने हाथों से
तन-मन को अँगोछती
अगले दिन
आने का वचन देकर
तेज़ी से चली जाती है ।