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सुर्ख रंगतों की तलाश / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
हाँ रंगों के बीच रहकर बन जाती हूँ
कोई रंग तो क्या चाँद तुम्हारी
आँखों में कोई तस्वीर नहीं उभरती
क्यूँ नहीं भरते तुम उसमें अपने जज्बात
आखिर तु्म्हें भी अपनी रुहानी रंगों के साथ
सुर्ख रंगतों की तलाश है
तुम भी तो ढूँढ़ना चाहते हो
अपने होने की जड़ें
तभी न तुम अक्सर
अपने आसमान के घर से
इस छोर से उस छोर तक
चुपचाप चक्कर लगाते हो
कभी बादलों के संग टहलते हो
कभी चुपके से झील में उतर आते हो
कभी पत्तियों शाखों टहनियों के पीछे
छुप जाते हो
कभी शुद्ध अवलोकन बन जाते हो
धरती का
आखिर धरती को प्रकाशमान
तुम्हें ही करना है
कहीं कम कहीं ज्यादा।