भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूखकर काँटा हु‌आ तन था / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूखकर काँटा हु‌आ तन था बिकल बेहाल मन।
बाल बिखरे शुष्क थे मुरझा हु‌आ था विधु-वदन॥
मुख निकलती आह थी, थीं आँख आँसूसे भरी।
बसन अस्तव्यस्त थे, थी दुख-लता पूरी हरी॥
सखी समझाने लगी, ’तुम हो रही हो क्योंविकल ?
भूल जा‌ओ उसे अब क्योंरट रही प्रत्येक पल ?’
’भूल जाना चाहती हूँ, भूल पर सकती नहीं।
ज्यों हटाना चाहती मन, दौडक़र जाता वहीं॥
नहीं लेना चाहती मैं उस निठुरका नाम भी।
जीभ पर रटती सदा, नहिं मानती मेरी कभी॥
रोकती हूँ कानको, पर वे न मेरी मानते।
प्रियवचन मुरली-सुधा ही सिर्फ पीना जानते॥
बंद करती हूँ निगोड़ी नासिकाको मैं सदा।
श्याम-‌अंग-सुगंधको, पर, नहीं तजती वह कदा॥
कब चरणरज सिर चढ़ाकर धन्य हूँगी मैं अमर।
कब करूँगी नेत्र शीतल निर्निमिष मुख देखकर॥
कब लगाऊँगी अगर-मृगमद-चु‌आ-चन्दन शरीर।
कब चढ़ाऊँगी सुमन सुरभित चरण, होकर अधीर॥
फट रहा है हृदय मेरा, जल रही ज्वाला अमित।
कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? पाऊँ कहाँ प्रियतम अजित ?’॥
आ गये नटवर अचानक लिये मुरली मधुर कर।
वितरते आनन्द, छायी मुसकराहट मृदु अधर॥
देखते ही मिट गये संताप तन-मनके सकल।
सुख-सुधोदधि उमड़ आया, हो गया जीवन सफल॥
ली तुरंत मधुर हृदयमें मिली खो‌ई निधि ललाम।
सह न पायी तनिक-सा अवकाश, भूली निरख श्याम॥
हु‌ई विस्मृति सकल जगकी, ’मैं’ तथा ’मेरा’ गये।
एक लीलामय मधुर रस-रसिक रसनिधि रह गये॥