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सूख रहे आँगन के पौधे / ज्योति खरे
Kavita Kosh से
घर में जबसे अपनों ने
अपनी-अपनी राह चुनी
चाहत के हर दरवाज़े पर
मकड़ी ने दीवार बुनी।
लौटा वर्षों बाद गाँव में
सहमा-सा चौपाल मिला
बाबूजी का टूटा चश्मा
फटा हुआ रुमाल मिला
टूट रही अम्मा की साँसे
कानो ने इस बार सुनी।
मन्दिर की देहरी पर बैठी
दादी दिन भर रोती हैं
तरस रहीं अपनेपन को
रात-रात नहीं सोती हैं
बैठ-बैठ कर यहाँ-वहाँ
बहुएँ करती कहा-सुनी।
दवा-दवा चिल्लाते दादा
खाँसी रोक नहीं पाते
बड़े-बड़ों की क्या बताएँ
बच्चे भी पास नहीं आते
सूख रहे आँगन के पौधे
दीमक ने हर डाल घुनी