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सेज फूलों की सजाये / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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सेज फूलों की सजाये चाँद बैठा,
ज़िन्दगी वैराग के भुजपाश में है!

लोग कहते हैं कि मैंने सोम-घट जूठे किये हैं,
मानसर की बात क्या, सातों समुन्दर पी लिये हैं;
आम चर्चा है, कि मेरी प्यास है गुमराह छोरी,
कल अमृत से खेलती थी, आज विष में उम्र बोरी;

कान का कच्चा जहाँ है,
आँख क्या जाने कहाँ है;
शीश पर सूरज, चतुर्दिक धूनियाँ हैं,
प्राण मेरा आग के भुजपाश में है!

कैद हूँ मैं संयमी दीवार में, पहरे कड़े हैं,
जिस तरफ़ नज़रें उठाऊँ विष बुझे भाले जड़े हैं;
गुनगुनाहट भी परिधि के पार जा पाती नहीं है,
फूल है जिस ठौर बन्दी, गन्ध भी बैठी वहीँ है;

जो मुझे नकली बताये,
श्वास मेरे पास आए;
बेबसी की गोद में चन्दन पड़ा है,
और खुशबू नाग के भुजपाश में है!

इस जवानी में हठी संगीत सन्यासी हुआ है,
अनथके अवरोह ने गहराइयों का तल छुआ है;
मैं वहाँ पर हूँ, जहाँ बजती नहीं शहनाईयां हैं,
बोलती परछाइयों से गूँजती तनहाइयाँ हैं;

उम्र जो नगमा दबाये,
भूलती है भूल जाये;
कामना का नाम मीरा हो गया है,
आज अंजलि त्याग के भुजपाश में है!

आईने पर चोट पहली नक्श होकर गयी है,
किस तरह भूलूँ कहानी, जो अनागत से नई है;
गीत माखनचोर कल था, सारथी है आज मेरा,
यों बुझा मेरा सबेरा, हो गया रोशन अँधेरा;
दर्द के मुँह पर हँसी है,
बात कुछ ऐसी फँसी है,
हाथ फैलाये गगन बेसुध खड़ा है,
कीर्ति मेरी दाग़ के भुजपाश में है!