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सोचता हूँ प्यास ये कैसे बुझाऊँ / डी. एम. मिश्र
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सोचता हूँ प्यास ये कैसे बुझाऊँ
आग के दरिया में क्यों न डूब जाऊँ
देख लूँ कितना ज़हर है कालिए में
चढ़ के उसके शीश पर मुरली बजाऊँ
शोक को उत्सव बना देता हूँ यारो
जब फटे दुख से कलेजा, गीत गाऊँ
हार से भी हारने वाला नहीं हूँ
हार को भी, हार मैं बढ़कर पिन्हाऊँ
सच दिखाना फ़र्ज़ मेरा क्या करूँ मैं
आइना हूँ मैं भले ही टूट जाऊँ
क्या बिगाड़ेगा मेरा भूकम्प कोई
झोपड़ी अपने, महल थोड़ी उठाऊँ
खुश नहीं हूँ, हार भी मानूं न लेकिन
हूँ विवश क़ातिल को जो रक्षक बनाऊँ
चैन से मैं बैठने वाला कहाँ हूँ
तोड़कर पिंजरा मैं जब तक उड़ न जाऊँ