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सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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दिनगुलि मोर सोनार खाँचाय र‍इल ना

सोने के पिंजरे में नहीं रहे दिन ।
रंग-रंग के मेरे वे दिन ।।
सह न सके हँसी-रुदन ना कोई बँधन ।
थी मुझको आशा— सीखेंगे वो प्राणों की भाषा ।।
उड़ वे तो गए कही नही सकल कथा ।
कितने ही रंगों के मेरे वे दिन ।।
देखूँ ये सपना टूटा जो पिंजरा वे उसको घेर ।
घूम रहे हैं लो चारों ओर ।
रंग भरे मेरे वे दिन ।
इतनी जो वेदना हुई क्या वृथा !
क्या हैं वे सब छाया-पाखि !
कुछ भी ना हुआ वहाँ क्या नभ के पार,
कुछ भी वहन !!


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'विचित्र' के अन्तर्गत 34 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)