भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्याम! तुम परम निठुर हम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्याम! तुम परम निठुर हम जाने।
कबहुँ न सुरति करत प्रेमिन की, करत करम मन-माने॥
हौं ब्रज जाय देखि आयौ निज आँखिन सब करतूत।
चित चुराय तजि आ‌ए रोवत-बिलपत, ऐसे धूत॥
ब्रज-जुबतिन कै दे क्यौ मैंने स्रवत नयन नित नीर।
छिनहूँ भूलि न सकौं लाडिली कौ अति छीन सरीर
जो तुहरे जिय नैक प्रेम है, जो उर करुना-लेस।
तौ ब्रज जाय, मिलौ उन सौं पुनि, तजि यह माथुर भेस॥