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स्याम-दरस-परसन की प्यासी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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स्याम-दरस-परसनकी प्यासी बिरहाकुल सब ब्रजनारी।
धीरज गयौ, भर्‌ईं अति आतुर, बाढ़ी हियें प्रीति न्यारी॥
परम रसिक नागर रस-सागर जानि गये हरि हिय की बात।
जमुना-पुलिन सुकुसुमित कानन ठाढ़े जाय मधुर मुसुकात॥
धर मधु अधर मुरलिया, मोहन लगे बजावन अति अभिराम।
स्वर-संकेत नाम लै-लै, सब टेरीं भाग्यवती ब्रजबाम॥
सुनत सकल भाजीं ब्रज-बनिता, लखि प्रियतम कौ प्रिय आह्वान।
देह-गेह कौ मोह छाँडि सब, तजि मरजाद लोक, कुल-कान॥
प्रेम चतुर चातकि-गन नव घन निरखि भर्‌ईं आनंद-बिभोर।
चतुर चकोरीं चन्द्र देखि जनु जुरि आर्‌ईं सब एकहि ठौर॥
तैसहि दग्ध विषम बिरहानल ब्रजबाला सब जुरीं सुभाय।
दिव्य सुखद सौंदर्य-सुधा-सागर सीतल में रहीं नहाय॥
मिटीं सकल तन-मन की ज्वाला, अमित दुःख कौ आयौ अंत।
भेंटे प्रेमानन्द पूर्णतम प्रियतम बाढ्‌यो प्रेम अनंत॥