स्याम-सरोज-बदन सुचि सुन्दर नयन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
स्याम-सरोज-बदन सुचि सुन्दर नयन-जुगल चंचल सुबिसाल।
भ्रकुटि कुटिल आकर्षति मुनि-मन मृगमद-कुंकुम तिलक सुभाल॥
झूमि रहीं अलकावलि कारी घुँघुरारी घन रुचिर बिचित्र।
कानन कुंडल ज्योति छिटक रहि, कलित कपोलनि रचना चित्र॥
सीस मुकुट मनि-मोर-सिखाजुत लसत मंजु बर बिनु उपमान।
अरुन अधर बिकसित दसनावलि छाई मंद मधुर मुसुकान॥
उर बिसाल सोभित मुक्ता-मनि सुरभित कुसुम तुलसिका-हार।
कटि किंकिनि-रव सुमधुर बाजत झनकत पग नूपुर-झनकार॥
रूप अनूप अपार अलौकिक धरे चल रहे मारग स्याम।
राधा निरखि रही अपलक दृग बैठि झरोखे बदन ललाम॥
नेत्र अतृप्त निरखि सुंदरता आनँद-सागर उर न समात।
बही दृगन धारा अबाध गति पावित कर सुचि मुख-जलजात॥
देखि राधिका मुख-ससि सुखमय हरषि भये मोहन रस-मग्र।
सहसा एक नयो भय उपज्यौ तातें भयौ स्याम-सुख-भग्र॥
’देखि मोहि प्रियतमा राधिका कितनी सुखी भई एहि काल।
आँखिन ओझल होत अदरसन तें कैसी होगी बेहाल॥
सहि पावैगी कैसे राधा हृदय-बिदारक सो उर-सूल।’
’हाय’ पुकार रो उठे मोहन सहसा गये सकल सुख भूल॥
देखि बिषाद भर्यौ प्रियतम-मुख काँपि उठ्यौ राधा-तन धीर।
उठी हृदय तें हूक बिंधि गयौ मानों बिषम बिष-बुझ्यौ तीर॥
निज सुख-हेतु स्याम सनमुख मैं आई क्योंअपराधिनि आज ?
जो सुख स्याम-दुःख कौ कारन ता पर परी क्योंनहीं गाज ?
नहीं आवती जो सन्मुख मैं होती नहिं आनन्द-बिभोर।
मेरी भावी दुख-संका तें तो न दुखी होते चित-चोर॥
मेरे दुःख-दुखी वे प्रियतम मेरे सुख तें सुखी अमान।
तिन कूँ नित्य दुखी मैं करती निज-सुख-इच्छा में बेभान॥
कबहुँ न मैं देखूँ अब तिन कूँ, देख जु पाऊँ रहूँ सचेत।
सुख-लहरी आवै न बदन पर प्रगट न होवै सुख-संकेत॥