Last modified on 17 जनवरी 2014, at 01:27

स्याम बिनु छिनहूँ नाहिं सरै / हनुमानप्रसाद पोद्दार

स्याम बिनु छिनहूँ नाहिं सरै।
पल-पल जुग समान बीतत, नहिं अधम प्रान निसरै॥
बोलनि-चलनि, आवनी-धावनि की सुधि मोद भरै।
नव निकुंज की मिलनि मनोहर कबहूँ नहिं बिसरै॥
का कौं कहि कैसे समुझावौं, हिय बिच अगिनि जरै।
बिनु अनुभव कैसैं पतियावै, कैसैं समुझि परै॥
कहिबे में कछु सार न दीखत, उलटौ नाम धरै।
को जग ऐसौ है, जासौं यह जिय की जरनि जरै॥
जौ कहुँ स्याम सुधा-जल आकर मो पर बरसि परै।
तब ही बुझै अनल यह जड़ सौं, निर्झर अमृत झरै॥