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स्लेट और तख़्ती / रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
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सिसक-सिसक कर स्लेट जी रही,
तख़्ती ने दम तोड़ दिया है ।
सुन्दर लेख-सुलेख नहीं है,
कलम टाट का छोड़ दिया है ।।
दादी कहती एक कहानी,
बीत गई सभ्यता पुरानी ।
लकड़ी की पाटी होती थी,
बची न उसकी कोई निशानी ।।
फाउण्टेन-पेन गायब हैं,
जेल पेन फल-फूल रहे हैं ।
रीत पुरानी भूल रहे हैं,
नवयुग में सब झूल रहे हैं ।।
समीकरण सब बदल गए हैं,
शिक्षा का पिट गया दिवाला ।
बिगड़ गये परिवेश प्रीत के,
बिखर गई है मंजुल माला ।।