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स्वर्ण / शरद कोकास
Kavita Kosh से
आवश्यकता की नहीं
विलासिता की कोख से जन्म लिया मैंने
फिर भी आड़े वक़्त
जरूरतमन्दों के काम आया
मखमली सुख में लिपटा रहा
सुन्दरियों की देह पर सजता रहा
राजाओं के मुकुट व सिंहसन में ढला
तेज के सामने चूर हुआ मेरा दर्प
देश-विदेश की यात्राएँ की
युद्ध लड़े गए मेरे लिए
बस्तियाँ लूटी गईं
लूटे गए मन्दिर
कत्ल किए गए
जिन्होंने मुझे खदानों से निकाला
जिन्होंने मुझे ख़ज़ानों तक पहुँचाया
मुझे कभी अपने पास नहीं रख पाए
मैं कभी उनके पास नहीं रह पाया
मैं कभी उनके कोई काम न आया।
-1997